म प्र पुलिस विभाग में डी एस पी के पद पर कार्यरत हु.. कभी सोचा भी नही था की ज़िन्दगी कुछ यू करवट लेगी.. ज़िन्दगी के कुछ खट्टे मीठे अनुभव बाँट रही हु आपके साथ.. नेस्बी के लिए मेरा पहला लेख है.. कैसा लगा बताइयेगा ।
सब लोग मुझसे कहते हैं कि डी.एस.पी. बनना मेरी एक उपलब्धि है! लेकिन मेरा मानना है कि उससे भी बड़ी उपलब्धि है डी.एस. पी. बनने के बाद पूरे व्यक्तित्त्व में एक सकारात्मक परिवर्तन आना! इस पद पर आने के लिए सिर्फ पढाई की ज़रूरत थी और कुछ नहीं! लेकिन असली चैलेन्ज तो इसके बाद शुरू हुआ! आज मैं बताना चाहूंगी कि किस तरह आत्मविश्वास, मुसीबतों को सहजता से लेना, शारीरिक और मानसिक रूप से ताकतवर बनना और संवेदनशील बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई जो आज भी जारी है!
मुझे याद है वो पहला दिन अकादमी का ...जब पहली बार मैं अपना बैग लेकर अजनबियों के बीच ट्रेनिंग के लिए पहुंची थी! लड़कियों से तो पहले ही दिन दोस्ती हो गयी थी लेकिन लड़कों ने अपने व्यवहार से परोक्ष रूप से जताना शुरू कर दिया था कि बन तो गयी हो डी.एस.पी. लेकिन ट्रेनिंग करना इतना आसान नहीं है लड़कियों के लिए! सच कहूं तो शुरू में थोडा डर भी लगा कि कहीं सचमुच कठिन ट्रेनिंग कर भी पाउंगी या नहीं! पहले कभी स्पोर्ट्स भी ज्यादा नहीं रहा, न ही एन.सी.सी. किया था कभी! पहले दिन हम सभी ग्राउंड पर पहुंचे! उस्ताद ने ग्राउंड के पांच चक्कर लगाने को कहा...दौड़ने भागने की आदत ही नहीं थी! उसके बाद पी.टी. फिर ड्रिल अभ्यास...शाम को फिर परेड फिर स्पोर्ट्स! शाम होते होते हालत खराब हो चुकी थी! शरीर में दर्द के मारे बुरा हाल था! लेकिन सुकून की बात ये थी कि लड़कियों का ही नहीं लड़कों का भी यही हाल था! एक सप्ताह में ही शरीर को इन सब चीज़ों की आदत हो गयी! अब तक उस्ताद भी थोड़े नरम हो गए थे!सुबह जब सबसे पहले ग्राउंड के पांच चक्कर लगाने पड़ते तो बड़ा तकलीफ देह होता था! लेकिन इतनी छूट मिलने लगी थी कि यदि कोई थक गया है तो बीच में से बाहर निकल सकता था! सभी लडकियां २-३ राउंड के बाद निकल जातीं! कुछ लड़के भी निकल जाते!थक तो मैं भी बहुत जाती थी लेकिन मुझे लगता था कि मैं किसी लड़के को ये कहने का मौका नहीं दूंगी कि हम तुम लड़कियों से ज्यादा ताकतवर हैं!मैं बिना कुछ सोचे लगातार बस दौड़ती रहती! मुझे एक दिन बहुत ख़ुशी हुई जब कई महीनों के बाद एक लड़के ने मुझसे कहा कि उसे मुझसे प्रेरणा मिलती है! वह बीच में दौड़ना बंद करना चाहता है लेकिन मुझे देखकर उसे शक्ति मिलती है! उस दिन मुझे लगा कि मैं जो सन्देश देना चाहती थी वो सभी तक पहुँच गया है!
मुझे लगता है तन से ज्यादा मन की मजबूती ज़रूरी है! मैंने ठान लिया था कि मैं किसी भी एक्टिविटी से पीछे नहीं हटूंगी! इसलिए जो काम अन्य लडकियां नहीं कर पाती थीं जैसे रस्से पर चढ़ना, कंधे पर रायफल और वजनदार बैग लेकर मीलों पैदल चलना और रॉक क्लाइम्बिंग करना वगेरह मैं आसानी से कर लेती थी और मुझे आनंद भी बहुत आता था! एक बार हम सभी बालाघाट गए नक्सलाईट ट्रेनिंग के लियए! वहाँ तीन दिन की जंगल ट्रेनिंग भी थी! उसके लिए तीन दिन का सामान लेकर और वजनदार एस.एल.आर. रायफल लेकर पैदल ही चलना था! हमारे साथ जिला पुलिस से अधिकारी और जवान भी भेजे गए थे जो रास्ता बता रहे थे! जब किसी पहाड़ पर चढ़ना होता था तो अपने शरीर का वजन ही ज्यादा जान पड़ता था!ऊपर से रायफल और बैग का बोझ!हमारे कई साथी उस वक्त अपना सामान व रायफल साथ आये जवानों को सौंप देते थे और खाली हाथ चलते थे!थकती मैं भी थी मगर मन में ठान चुकी थी कि सारी ट्रेनिंग बिना किसी सहारे के करनी है! इसलिए हाँफते हुए भी मैं अपना सामान अपने साथ ही रखती थी! मेरी इस बात को सभी अधिकारियों ने हमेशा सराहा! एक बार एक साथी बैचमेट ने कहा भी कि " थक गयी हो तो मुझे देदो अपना सामान" मैंने उसे जवाब दिया " तुम थक जाओ तो तुम मुझे अपना सामान दे देना" ! मुझे बहुत ख़ुशी होती है जब आज जूनियर बैच के डी.एस.पी मुझसे आकर कहते हैं कि आज भी अकादमी में उस्ताद लड़कियों को मेरा उदाहरण देते हैं.....मेरे साथ मेरी बैचमेट थी भावना , वह भी बहुत मेहनती थी!उस साल पहली बार कोई लड़की डी.एस.पी. ट्रेनिंग में प्रथम आई! वो थी भावना! दुसरे नंबर पर मैं थी!इस बार लडकियां बाजी मार ले गयीं थीं!
इसके बाद शुरू हुआ यथार्थ से सामना....यानी फील्ड में आकर काम करना! मुझे याद है जब पहली बार मैंने एक डैड बॉडी देखी थी ...उस व्यक्ति की हत्या हुई थी!मर्चुरी में रखी हुई उस लाश को देखकर मुझे चक्कर आ गया था और मैं चुपचाप बाहर निकल आई थी! उसके बाद मन को मजबूत किया और हर जगह जहां कोई हत्या होती थी , मैं जाने लगी! और अब तो हर तरह कि लाश चाहे वह कितनी भी सडीगली क्यों न हो , देखना एक सामान्य बात हो गयी है! इस नौकरी ने आत्म विश्वास बहुत बढाया! कभी ऐसा लगा ही नहीं कि लड़का या लड़की में जरा सा भी भेद होता है!
एक और घटना मेरे दिमाग में आती है...ट्रेनिंग ख़त्म करने के बाद मेरी पहली पोस्टिंग ग्वालियर में हुई! उत्साह और जोश से मैं लबालब भरी हुई थी! पोस्टिंग के थोड़े ही दिन के भीतर मैं एक दिन थाने पर बैठी थी...तभी एक गाँव में एक गांजे का खेत होने की सूचना आई! मैं तत्काल थाना प्रभारी और ५-६ जवानों को लेकर वहाँ पहुँच गयी! वहाँ जाकर देखा तो गांजे का एक पूरा भरा हुआ खेत था...जिसमे एक झोंपडी बनी हुई थी! झोंपडी की जब तलाशी ली तो सूखे गांजे से भरा हुआ बोरा और कुछ अवैध हथियार मिले! मुलजिम भी हमारे हाथ में था और माल भी! हमारी रेड सफल हो गयी थी!ख़ुशी ख़ुशी हम अपना आगे का काम कर रहे थे...इतने में चारों और से गोलियों की आवाज़ आने लगी! दरअसल हमसे एक गलती हो गयी थी! उस झोंपडी में से एक औरत चुप चाप पीछे से निकल कर भाग गयी थी और पूरे गाँव को इकठ्ठा कर लायी! सभी गाँव वाले एकजुट होकर आये और सीधे फायरिंग शुरू कर दी! हल्का हल्का अँधेरा होना शुरू हो गया था! एकाएक चारों तरफ से गोलियों की बौछार होते देख एक पल को मैं बुरी तरह घबरा गयी! लगा की बस आज मौत आने ही वाली है!उस वक्त एक विचार ये भी आया दिमाग में की भाड़ में गया गांजा...यहाँ से जान बचाकर भागा जाये!तभी जैसे अन्दर से किसी ने धिक्कारा मुझे कि क्या इसी बल बूते पर पुलिस में नौकरी करने आई हो!मेरे मन में ख़याल आया कि मैं अगर भागी तो अपनी जान तो बचा लूंगी लेकिन अगले दिन के पेपर मेरी कायरता से रंगे होंगे! और दूसरी बात ..अगर एक बार गाँव के लोग पुलिस पर हावी हो गए तो हमेशा पुलिस पर हमला करेंगे!मैंने निश्चय किया कि मैं वहीं रहूंगी! मैंने थाना प्रभारी से कहा कि अपन भी जवाबी फायरिंग करते हैं!उसने तत्काल मुझे रोका! बोला...अगर इस अँधेरे में किसी को गोली लग गयी तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी! मैं नयी थी और वह दस साल का अनुभवी! मैंने उसकी बात मान ली!बाद में महसूस हुआ कि उसकी बात मानकर मैंने अकलमंदी की थी! बाद में मुझे लगा कि उस पल चारों और से बरसती गोलियों का मुकाबला करना मेरे अंदरूनी साहस को बढाने वाला सिद्ध हुआ! उसके बाद से अन्दर का भय मिट गया और आज बड़े से बड़े मॉब में मैं हाथ में लाठी और सर पर हेलमेट पहनकर घुस जाती हूँ!खतरा तो हर जगह है लेकिन अब सामना करने की हिम्मत आ गयी है!
ये तो हुई हिम्मत और आत्म विश्वास की बात...इसके बाद सबसे बड़ी चुनौती होती है! इस विभाग की बुराइयों से अपने आप को अछूता रखना! जिसमे प्रमुख हैं भ्रष्टाचार और जनता के प्रति असंवेदनशीलता! मैं नौकरी में आने के पहले हमेशा सोचती थी कि लोग कैसे रिश्वत देते और लेते होंगे? लोग कहा करते थे कि चाहो या न चाहो पुलिस में बिना पैसे लिए काम नहीं चलता! मुझे इन बातों पर हमेशा आश्चर्य होता था! जब पहली बार एस.डी.ओ.पी. के रूप में स्वतंत्र पोस्टिंग मिली तो कुछ ही दिनों बाद मेरे रीडर ने झिझकते हुए मुझसे पूछा कि दारू के ठेके वाले का क्या करना है? मुझे कुछ समझ नहीं आया! तब उसने खुलासा किया कि दस हज़ार वह हर महीने देता है! साथ ही हर थाने से कितना आता है , वह भी हिसाब उसने मुझे बताया! वह एक पल था जो किसी भी पुलिस वाले के बेईमान या ईमानदार होने का निर्धारण करता है! मुझे सोचने में एक पल भी नहीं लगा! मैंने कह दिया कि आज से एक पैसा भी कहीं से नहीं लिया जायेगा! रीडर को आश्चर्य हो रहा था...शायद उसकी नज़रों में ये बेवकूफी के आलावा कुछ नहीं था!बाद में मेरे दोस्तों ने मुझे इस बात के लिए मुझे पागल भी ठहराया! पर मुझे लगता है कि ईमानदारी अपने आप में एक बहुत बड़ी ताकत है! हमेशा से रिश्वत लेने को मैं इस रूप में देखती हूँ कि ये भीख लेने का ही दूसरा रूप है! जो अपना जीवन यापन करने में सक्षम नहीं है वही दूसरों के टुकडों पर पलता है!मुझे ख़ुशी है की मैंने ईमानदारी का रास्ता चुना!
दूसरी एक बात जो मुझे चकित करती है वो ये कि पुलिस से ये अपेक्षा क्यों की जाती है कि वह मार पीट करने वाला, गाली देने वाला और गुस्से वाला हो!मैं संवेदन शील तो पहले ही थी! लोग अक्सर कहते थे कि तुम जैसे लोगों के लिए ये डिपार्टमेंट नहीं है! अपनी संवेदनशीलता को थोडा कम करना होगा! लेकिन मैंने ठीक इसका उल्टा पाया! मुझे लगा , मुझे अपनी संवेदन शीलता बढाने की ज़रूरत है! इस विभाग के लोगों को तो अन्य लोगों की तुलना में ज्यादा संवेदनशील होना चाहिए! क्योकी जो व्यक्ति थाने तक आता है वह सचमुच पीड़ित होता है और न्याय के साथ अच्छे व्यवहार की भी उम्मीद रखता है! मैंने कई बार महसूस किया कि किसी व्यक्ति की पूरी बात तसल्ली से सुन लेने भर से ही वह काफी रिलीफ महसूस करने लगता है!मैंने हमेशा पीड़ित व्यक्ति को इस नजरिये से सुना कि अगर मैं उसके स्थान पर होती तो किस व्यवहार की उम्मीद रखती! इस नौकरी में आने के बाद मैं लोगों की तकलीफ को ज्यादा महसूस कर पाती हूँ!
कुल मिलाकर पुलिस वालों को चाहे दुनिया कितना भी कोसे लेकिन इस नौकरी ने मेरे व्यक्तित्व को एक नया आयाम दिया है!और मेरी अच्छाइयों में इजाफा ही किया है!और इस सभी बातों का पूरा श्रेय मेरे माता पिता को जाता है जिन्होंने बचपन से ही साहस और आत्मनिर्भरता का पाठ पढाया! वरना शायद मैं भी उन्ही पुलिसवालों में से एक होती जिनकी वजह से ये विभाग बदनाम है!
अब पीछे मूड कर देखती हू तो लगता है नेस्बी भी पुलिस बन सकती है.. और सच तब बहुत खुशी होती है...
मुझे याद है वो पहला दिन अकादमी का ...जब पहली बार मैं अपना बैग लेकर अजनबियों के बीच ट्रेनिंग के लिए पहुंची थी! लड़कियों से तो पहले ही दिन दोस्ती हो गयी थी लेकिन लड़कों ने अपने व्यवहार से परोक्ष रूप से जताना शुरू कर दिया था कि बन तो गयी हो डी.एस.पी. लेकिन ट्रेनिंग करना इतना आसान नहीं है लड़कियों के लिए! सच कहूं तो शुरू में थोडा डर भी लगा कि कहीं सचमुच कठिन ट्रेनिंग कर भी पाउंगी या नहीं! पहले कभी स्पोर्ट्स भी ज्यादा नहीं रहा, न ही एन.सी.सी. किया था कभी! पहले दिन हम सभी ग्राउंड पर पहुंचे! उस्ताद ने ग्राउंड के पांच चक्कर लगाने को कहा...दौड़ने भागने की आदत ही नहीं थी! उसके बाद पी.टी. फिर ड्रिल अभ्यास...शाम को फिर परेड फिर स्पोर्ट्स! शाम होते होते हालत खराब हो चुकी थी! शरीर में दर्द के मारे बुरा हाल था! लेकिन सुकून की बात ये थी कि लड़कियों का ही नहीं लड़कों का भी यही हाल था! एक सप्ताह में ही शरीर को इन सब चीज़ों की आदत हो गयी! अब तक उस्ताद भी थोड़े नरम हो गए थे!सुबह जब सबसे पहले ग्राउंड के पांच चक्कर लगाने पड़ते तो बड़ा तकलीफ देह होता था! लेकिन इतनी छूट मिलने लगी थी कि यदि कोई थक गया है तो बीच में से बाहर निकल सकता था! सभी लडकियां २-३ राउंड के बाद निकल जातीं! कुछ लड़के भी निकल जाते!थक तो मैं भी बहुत जाती थी लेकिन मुझे लगता था कि मैं किसी लड़के को ये कहने का मौका नहीं दूंगी कि हम तुम लड़कियों से ज्यादा ताकतवर हैं!मैं बिना कुछ सोचे लगातार बस दौड़ती रहती! मुझे एक दिन बहुत ख़ुशी हुई जब कई महीनों के बाद एक लड़के ने मुझसे कहा कि उसे मुझसे प्रेरणा मिलती है! वह बीच में दौड़ना बंद करना चाहता है लेकिन मुझे देखकर उसे शक्ति मिलती है! उस दिन मुझे लगा कि मैं जो सन्देश देना चाहती थी वो सभी तक पहुँच गया है!
मुझे लगता है तन से ज्यादा मन की मजबूती ज़रूरी है! मैंने ठान लिया था कि मैं किसी भी एक्टिविटी से पीछे नहीं हटूंगी! इसलिए जो काम अन्य लडकियां नहीं कर पाती थीं जैसे रस्से पर चढ़ना, कंधे पर रायफल और वजनदार बैग लेकर मीलों पैदल चलना और रॉक क्लाइम्बिंग करना वगेरह मैं आसानी से कर लेती थी और मुझे आनंद भी बहुत आता था! एक बार हम सभी बालाघाट गए नक्सलाईट ट्रेनिंग के लियए! वहाँ तीन दिन की जंगल ट्रेनिंग भी थी! उसके लिए तीन दिन का सामान लेकर और वजनदार एस.एल.आर. रायफल लेकर पैदल ही चलना था! हमारे साथ जिला पुलिस से अधिकारी और जवान भी भेजे गए थे जो रास्ता बता रहे थे! जब किसी पहाड़ पर चढ़ना होता था तो अपने शरीर का वजन ही ज्यादा जान पड़ता था!ऊपर से रायफल और बैग का बोझ!हमारे कई साथी उस वक्त अपना सामान व रायफल साथ आये जवानों को सौंप देते थे और खाली हाथ चलते थे!थकती मैं भी थी मगर मन में ठान चुकी थी कि सारी ट्रेनिंग बिना किसी सहारे के करनी है! इसलिए हाँफते हुए भी मैं अपना सामान अपने साथ ही रखती थी! मेरी इस बात को सभी अधिकारियों ने हमेशा सराहा! एक बार एक साथी बैचमेट ने कहा भी कि " थक गयी हो तो मुझे देदो अपना सामान" मैंने उसे जवाब दिया " तुम थक जाओ तो तुम मुझे अपना सामान दे देना" ! मुझे बहुत ख़ुशी होती है जब आज जूनियर बैच के डी.एस.पी मुझसे आकर कहते हैं कि आज भी अकादमी में उस्ताद लड़कियों को मेरा उदाहरण देते हैं.....मेरे साथ मेरी बैचमेट थी भावना , वह भी बहुत मेहनती थी!उस साल पहली बार कोई लड़की डी.एस.पी. ट्रेनिंग में प्रथम आई! वो थी भावना! दुसरे नंबर पर मैं थी!इस बार लडकियां बाजी मार ले गयीं थीं!
इसके बाद शुरू हुआ यथार्थ से सामना....यानी फील्ड में आकर काम करना! मुझे याद है जब पहली बार मैंने एक डैड बॉडी देखी थी ...उस व्यक्ति की हत्या हुई थी!मर्चुरी में रखी हुई उस लाश को देखकर मुझे चक्कर आ गया था और मैं चुपचाप बाहर निकल आई थी! उसके बाद मन को मजबूत किया और हर जगह जहां कोई हत्या होती थी , मैं जाने लगी! और अब तो हर तरह कि लाश चाहे वह कितनी भी सडीगली क्यों न हो , देखना एक सामान्य बात हो गयी है! इस नौकरी ने आत्म विश्वास बहुत बढाया! कभी ऐसा लगा ही नहीं कि लड़का या लड़की में जरा सा भी भेद होता है!
एक और घटना मेरे दिमाग में आती है...ट्रेनिंग ख़त्म करने के बाद मेरी पहली पोस्टिंग ग्वालियर में हुई! उत्साह और जोश से मैं लबालब भरी हुई थी! पोस्टिंग के थोड़े ही दिन के भीतर मैं एक दिन थाने पर बैठी थी...तभी एक गाँव में एक गांजे का खेत होने की सूचना आई! मैं तत्काल थाना प्रभारी और ५-६ जवानों को लेकर वहाँ पहुँच गयी! वहाँ जाकर देखा तो गांजे का एक पूरा भरा हुआ खेत था...जिसमे एक झोंपडी बनी हुई थी! झोंपडी की जब तलाशी ली तो सूखे गांजे से भरा हुआ बोरा और कुछ अवैध हथियार मिले! मुलजिम भी हमारे हाथ में था और माल भी! हमारी रेड सफल हो गयी थी!ख़ुशी ख़ुशी हम अपना आगे का काम कर रहे थे...इतने में चारों और से गोलियों की आवाज़ आने लगी! दरअसल हमसे एक गलती हो गयी थी! उस झोंपडी में से एक औरत चुप चाप पीछे से निकल कर भाग गयी थी और पूरे गाँव को इकठ्ठा कर लायी! सभी गाँव वाले एकजुट होकर आये और सीधे फायरिंग शुरू कर दी! हल्का हल्का अँधेरा होना शुरू हो गया था! एकाएक चारों तरफ से गोलियों की बौछार होते देख एक पल को मैं बुरी तरह घबरा गयी! लगा की बस आज मौत आने ही वाली है!उस वक्त एक विचार ये भी आया दिमाग में की भाड़ में गया गांजा...यहाँ से जान बचाकर भागा जाये!तभी जैसे अन्दर से किसी ने धिक्कारा मुझे कि क्या इसी बल बूते पर पुलिस में नौकरी करने आई हो!मेरे मन में ख़याल आया कि मैं अगर भागी तो अपनी जान तो बचा लूंगी लेकिन अगले दिन के पेपर मेरी कायरता से रंगे होंगे! और दूसरी बात ..अगर एक बार गाँव के लोग पुलिस पर हावी हो गए तो हमेशा पुलिस पर हमला करेंगे!मैंने निश्चय किया कि मैं वहीं रहूंगी! मैंने थाना प्रभारी से कहा कि अपन भी जवाबी फायरिंग करते हैं!उसने तत्काल मुझे रोका! बोला...अगर इस अँधेरे में किसी को गोली लग गयी तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी! मैं नयी थी और वह दस साल का अनुभवी! मैंने उसकी बात मान ली!बाद में महसूस हुआ कि उसकी बात मानकर मैंने अकलमंदी की थी! बाद में मुझे लगा कि उस पल चारों और से बरसती गोलियों का मुकाबला करना मेरे अंदरूनी साहस को बढाने वाला सिद्ध हुआ! उसके बाद से अन्दर का भय मिट गया और आज बड़े से बड़े मॉब में मैं हाथ में लाठी और सर पर हेलमेट पहनकर घुस जाती हूँ!खतरा तो हर जगह है लेकिन अब सामना करने की हिम्मत आ गयी है!
ये तो हुई हिम्मत और आत्म विश्वास की बात...इसके बाद सबसे बड़ी चुनौती होती है! इस विभाग की बुराइयों से अपने आप को अछूता रखना! जिसमे प्रमुख हैं भ्रष्टाचार और जनता के प्रति असंवेदनशीलता! मैं नौकरी में आने के पहले हमेशा सोचती थी कि लोग कैसे रिश्वत देते और लेते होंगे? लोग कहा करते थे कि चाहो या न चाहो पुलिस में बिना पैसे लिए काम नहीं चलता! मुझे इन बातों पर हमेशा आश्चर्य होता था! जब पहली बार एस.डी.ओ.पी. के रूप में स्वतंत्र पोस्टिंग मिली तो कुछ ही दिनों बाद मेरे रीडर ने झिझकते हुए मुझसे पूछा कि दारू के ठेके वाले का क्या करना है? मुझे कुछ समझ नहीं आया! तब उसने खुलासा किया कि दस हज़ार वह हर महीने देता है! साथ ही हर थाने से कितना आता है , वह भी हिसाब उसने मुझे बताया! वह एक पल था जो किसी भी पुलिस वाले के बेईमान या ईमानदार होने का निर्धारण करता है! मुझे सोचने में एक पल भी नहीं लगा! मैंने कह दिया कि आज से एक पैसा भी कहीं से नहीं लिया जायेगा! रीडर को आश्चर्य हो रहा था...शायद उसकी नज़रों में ये बेवकूफी के आलावा कुछ नहीं था!बाद में मेरे दोस्तों ने मुझे इस बात के लिए मुझे पागल भी ठहराया! पर मुझे लगता है कि ईमानदारी अपने आप में एक बहुत बड़ी ताकत है! हमेशा से रिश्वत लेने को मैं इस रूप में देखती हूँ कि ये भीख लेने का ही दूसरा रूप है! जो अपना जीवन यापन करने में सक्षम नहीं है वही दूसरों के टुकडों पर पलता है!मुझे ख़ुशी है की मैंने ईमानदारी का रास्ता चुना!
दूसरी एक बात जो मुझे चकित करती है वो ये कि पुलिस से ये अपेक्षा क्यों की जाती है कि वह मार पीट करने वाला, गाली देने वाला और गुस्से वाला हो!मैं संवेदन शील तो पहले ही थी! लोग अक्सर कहते थे कि तुम जैसे लोगों के लिए ये डिपार्टमेंट नहीं है! अपनी संवेदनशीलता को थोडा कम करना होगा! लेकिन मैंने ठीक इसका उल्टा पाया! मुझे लगा , मुझे अपनी संवेदन शीलता बढाने की ज़रूरत है! इस विभाग के लोगों को तो अन्य लोगों की तुलना में ज्यादा संवेदनशील होना चाहिए! क्योकी जो व्यक्ति थाने तक आता है वह सचमुच पीड़ित होता है और न्याय के साथ अच्छे व्यवहार की भी उम्मीद रखता है! मैंने कई बार महसूस किया कि किसी व्यक्ति की पूरी बात तसल्ली से सुन लेने भर से ही वह काफी रिलीफ महसूस करने लगता है!मैंने हमेशा पीड़ित व्यक्ति को इस नजरिये से सुना कि अगर मैं उसके स्थान पर होती तो किस व्यवहार की उम्मीद रखती! इस नौकरी में आने के बाद मैं लोगों की तकलीफ को ज्यादा महसूस कर पाती हूँ!
कुल मिलाकर पुलिस वालों को चाहे दुनिया कितना भी कोसे लेकिन इस नौकरी ने मेरे व्यक्तित्व को एक नया आयाम दिया है!और मेरी अच्छाइयों में इजाफा ही किया है!और इस सभी बातों का पूरा श्रेय मेरे माता पिता को जाता है जिन्होंने बचपन से ही साहस और आत्मनिर्भरता का पाठ पढाया! वरना शायद मैं भी उन्ही पुलिसवालों में से एक होती जिनकी वजह से ये विभाग बदनाम है!
अब पीछे मूड कर देखती हू तो लगता है नेस्बी भी पुलिस बन सकती है.. और सच तब बहुत खुशी होती है...