
मेरी नेस्बी
अस्थमा की रोगिणी, नाम था मधुरा ...उनके जीवन मे ये नाम कहाँ तक सार्थक था आज तक नही समझ पायी मै । सर्दियों मे जब कोहरा गिरता… वे घुटनों तक जुराबें और माथे तक स्कार्फ़ बांध कर गुड़िया सी बन जाती । सफ़ेद कोरी साड़ी
और उतने ही सफ़ेद बाल,मेरे स्मृति पटल पर यही चित्र अंकित है उनका। उनके अतीत में झांकना हमें सबसे प्रिय था … उनके पिता चौ हरदयाल सिंह व महाकवि निराला सखा भाव से रहते… कैसे निराला जी उन्हे राम की शक्ति पूजा सुनाते… ऐसा ही कितना कुछ हम उनसे बार बार सुनते और मन कभी न अघाता हमारा । महादेवी वर्मा की प्रिय शिष्या ,जब इलाहाबाद युनिवर्सिटी से M.A की डिग्री लेकर निकली तो ब्याह दीं गयीं एक ऐसे ज़मींदार परिवार में जहां 500 व्यक्तियों की रसोई एक साथ पकती… हमें हँस हँस कर बताती … कि बिटिया जब नज़र का चश्मा लगा कर बाथरूम गये तो किसी बड़ी बूढ़ी ने ये कहकर चश्मा खेएंच लिया की पैखाने मे किसे फ़ैशन दिखाना है ?
वैवाहिक जीवन दो बेटियाँ और एक बेटा देकर मात्र 29 वर्ष की आयु मे चिर वैधव्य सौपं कर मुख मोड़ गया था,उसके बाद भी सबके प्रति उनके प्यार और दुलार में कभी कृपणता नही अनुभव हुयी । जब हम गर्मियों मे उनके पास जाते तो कहती …… बच्चों खाना ना खाओ ,आम खाओ खाना तो साल भर खाते हो । शेक्सपीयर से लेकर बिहारी तक पढ़ाने वाली मेरी नानी की पनीली आँखे आज भी मेरा मन भिगो जाती हैं ।
उनके व्यक्तित्व का प्रत्येक पहलू लुभावना था। बचपन मे मिला उनका प्यार हमारे युवा होते ही कैसे अनुशासन मे बदल गया …पता ही नही चला। जीवन भर उन्हे धुएँ और ठंडक से परहेज करते देखा था। तीन वर्ष पहले जब मै मायके गई तो शाम होते ही ननिहाल से बुलावा आया …… तीन-चार महीनों के घोर कष्ट के बाद उनकी तपस्या,उनका संघर्ष और उनका एकाकीपन उन्हे उसी अगरबत्ती के धुएँ और बर्फ़ की शीतलता का एकांतवास सौंप कर विलीन हो गया था ,और वहीं बैठे बैठे मै सोचती रही की ये "जी" गयीं या…………… दो पंक्तियाँ किसी की दिमाग में कौधनें लगीं……………धुआँ बना के हवा मे उड़ा दिया मुझको ……… …मै जल रहा रहा था किसी ने बुझा दिया मुझको।
उनका ये संस्मरण बहुत पहले मै अपने ब्लाग पर पोस्ट कर चुकी हूँ