शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008
मेरी नेस्बी
मेरी नेस्बी
अस्थमा की रोगिणी, नाम था मधुरा ...उनके जीवन मे ये नाम कहाँ तक सार्थक था आज तक नही समझ पायी मै । सर्दियों मे जब कोहरा गिरता… वे घुटनों तक जुराबें और माथे तक स्कार्फ़ बांध कर गुड़िया सी बन जाती । सफ़ेद कोरी साड़ी
और उतने ही सफ़ेद बाल,मेरे स्मृति पटल पर यही चित्र अंकित है उनका। उनके अतीत में झांकना हमें सबसे प्रिय था … उनके पिता चौ हरदयाल सिंह व महाकवि निराला सखा भाव से रहते… कैसे निराला जी उन्हे राम की शक्ति पूजा सुनाते… ऐसा ही कितना कुछ हम उनसे बार बार सुनते और मन कभी न अघाता हमारा । महादेवी वर्मा की प्रिय शिष्या ,जब इलाहाबाद युनिवर्सिटी से M.A की डिग्री लेकर निकली तो ब्याह दीं गयीं एक ऐसे ज़मींदार परिवार में जहां 500 व्यक्तियों की रसोई एक साथ पकती… हमें हँस हँस कर बताती … कि बिटिया जब नज़र का चश्मा लगा कर बाथरूम गये तो किसी बड़ी बूढ़ी ने ये कहकर चश्मा खेएंच लिया की पैखाने मे किसे फ़ैशन दिखाना है ?
वैवाहिक जीवन दो बेटियाँ और एक बेटा देकर मात्र 29 वर्ष की आयु मे चिर वैधव्य सौपं कर मुख मोड़ गया था,उसके बाद भी सबके प्रति उनके प्यार और दुलार में कभी कृपणता नही अनुभव हुयी । जब हम गर्मियों मे उनके पास जाते तो कहती …… बच्चों खाना ना खाओ ,आम खाओ खाना तो साल भर खाते हो । शेक्सपीयर से लेकर बिहारी तक पढ़ाने वाली मेरी नानी की पनीली आँखे आज भी मेरा मन भिगो जाती हैं ।
उनके व्यक्तित्व का प्रत्येक पहलू लुभावना था। बचपन मे मिला उनका प्यार हमारे युवा होते ही कैसे अनुशासन मे बदल गया …पता ही नही चला। जीवन भर उन्हे धुएँ और ठंडक से परहेज करते देखा था। तीन वर्ष पहले जब मै मायके गई तो शाम होते ही ननिहाल से बुलावा आया …… तीन-चार महीनों के घोर कष्ट के बाद उनकी तपस्या,उनका संघर्ष और उनका एकाकीपन उन्हे उसी अगरबत्ती के धुएँ और बर्फ़ की शीतलता का एकांतवास सौंप कर विलीन हो गया था ,और वहीं बैठे बैठे मै सोचती रही की ये "जी" गयीं या…………… दो पंक्तियाँ किसी की दिमाग में कौधनें लगीं……………धुआँ बना के हवा मे उड़ा दिया मुझको ……… …मै जल रहा रहा था किसी ने बुझा दिया मुझको।
उनका ये संस्मरण बहुत पहले मै अपने ब्लाग पर पोस्ट कर चुकी हूँ
गुरुवार, 4 दिसंबर 2008
उसकी शादी
मैं पेशे से एक इंटीरियर डिज़ाइनर हू, रंगो के साथ खेलना सुकून देता है.. अपना घर बनाना सबका सपना होता है.. खुशी होती है जब दूसरो के सपनो में रंग भरती हू.. नेस्बी भी ज़िंदगी के रंगो से सज़ा एक अनूठा ब्लॉग है इसमे एक रंग मेरा भी.. अच्छा लगा या बुरा बताएगा ज़रूर..
बी.
कॉम का लास्ट ईयर…. कॉलेज में हम लड़कियो का एक ग्रूप हुआ करता था….जो कॉलेज के पहले साल से साथ रहता था….लोग आते और चले जाते पर हम कुछ लड़कियो ने ग्रूप को बनाए रखा था…उसमे एक फ्रेंड थी मेरी… उ. प. के किसी शहर से थे वो लोग.. उस्के पापा बिजनसमैन थे और उनकी फैक्ट्री हुआ करती थी बड़ौदा में. … सीधे सादे लोग थे….
थर्ड ईयर के शुरू होते ही उसके पापा ने उसके लिए लड़के देखना शुरू कर दिया…. और बहुत ही जल्द अहमदाबाद के उन्ही की कास्ट के एक लड़के से उसकी सगाई कर दी…. लड़का अहमदाबाद की किसी कॉलेज में लेक्चरर था… जब से सगाई हुई मेरी फ्रेंड थोड़ी सी और रिज़र्व रहने लगी …और हम बाकी की सारी दोस्त , जैसे की होता रहता है, उसकी खिंचाई करने का मज़ा लेने लगी…ग्रूप की पहली लड़की की सगाई हुई थी तो हम सब खुश थी….मेरी दोस्त मुझसे कुछ ज़्यादा करीब थी…हम अच्छा ख़ासा एक दूसरे के बारे में जानते थे…थोड़े दिनों बाद हमारे ग्रूप में शादी की बातो को लेकर डिस्कशन हुआ….पता चला..कि उ.प. की होने के कारण उन लोगो में दहेज का बहुत ज़्यादा रिवाज है…। पूरा घर बसाकर देने के बावजूद कई बार लड़कियो को काफ़ी दिक्कत होती है शादी के बाद और इस बात से वो डर रही थी…॥ उसने मुझे काफ़ी कुछ डीटेल में बताया की कैसे शादी के फेरो के वक्त भी परेशानिया हो सकती है….
थर्ड ईयर के शुरू होते ही उसके पापा ने उसके लिए लड़के देखना शुरू कर दिया…. और बहुत ही जल्द अहमदाबाद के उन्ही की कास्ट के एक लड़के से उसकी सगाई कर दी…. लड़का अहमदाबाद की किसी कॉलेज में लेक्चरर था… जब से सगाई हुई मेरी फ्रेंड थोड़ी सी और रिज़र्व रहने लगी …और हम बाकी की सारी दोस्त , जैसे की होता रहता है, उसकी खिंचाई करने का मज़ा लेने लगी…ग्रूप की पहली लड़की की सगाई हुई थी तो हम सब खुश थी….मेरी दोस्त मुझसे कुछ ज़्यादा करीब थी…हम अच्छा ख़ासा एक दूसरे के बारे में जानते थे…थोड़े दिनों बाद हमारे ग्रूप में शादी की बातो को लेकर डिस्कशन हुआ….पता चला..कि उ.प. की होने के कारण उन लोगो में दहेज का बहुत ज़्यादा रिवाज है…। पूरा घर बसाकर देने के बावजूद कई बार लड़कियो को काफ़ी दिक्कत होती है शादी के बाद और इस बात से वो डर रही थी…॥ उसने मुझे काफ़ी कुछ डीटेल में बताया की कैसे शादी के फेरो के वक्त भी परेशानिया हो सकती है….
जबकि हमारे गुजरात में कुछ कास्ट को छोड़कर दहेज का कोई खास रिवाज नही…..लड़के वाले कई बार कहे देते है..कि आपको अपनी बेटी को जो देना हो वो दे दो…..हमारी और से कोई माँग नही है… मेरे लिए उस वक्त ये समझ पाना काफ़ी मुश्किल था……मैंने कह दिया की अगर तुम्हारी शादी में, मैं हुई और ऐसा कुछ हुआ तो मैं सीधा पुलिस को फोन कर दूँगी….चाहे जो हो जाए…. मैं ये सब नही चला सकती … और वो भी मेरी अपनी दोस्त के साथ…. मेरी सहेली वैसे ही थोड़ी चूज़ी थी….. ज़्यादा दोस्त नही थे उसके…हा .... स्टडी में काफ़ी अच्छी थी….हर साल फर्स्ट क्लास आया था उसका … और उसे आगे पढ़ने का भी बड़ा मन था….सगाई होने पर उसे अहसास हुआ की अब काफ़ी कुछ उसकी मर्ज़ी से नही होगा….जिसमे सबसे पहले पढ़ाई का बलिदान था….लोगो से जल्दी मिक्स नही होने वाले नेचर की वजह से वो अपने मंगेतर से बात करने से भी कतराती थी…और उसका मंगेतर उससे बात करने के लिए बेताब था…..उस वक्त मोबाइल तो थे नही की डाइरेक्ट बात हो सके…जमाना लॅंडलाइन फोन का था या फिर खत का…..ईमेल भी तो नही थे….. शहर अलग होने के कारण वो बार बार मिलने की भी नही सोच पा रहा था… सगाई के बाद उनका फोन पर बाते करने का सिलसिला शुरू हुआ…. थोड़े दिनों बाद मुझे मेरी फ्रेंड ने बताया की वो बात नही कर पा रही….उसे समझ नही आता था की क्या बात करे….सगाई के दिन मिलने के बाद वो फिर से मिले भी नही थे और सगाई के दिन तो सिर्फ़ रस्मे हुई थी…वो उस लड़के के बारे में ज़यादा जानती नही थी …और उसका खुद का नेचर भी ऐसा था की बात नही कर पा रही थी …. उसे डर लग रहा था… तो फोन को टालती रहती थी…. एक दिन उसने मुझे पूछा की वो क्या करे…..मुझे तो खत लिखने की बीमारी थी उस वक्त…. मैने सुझाव दिया की अगर वो बात नही कर पा रही तो कुछ दिन खत से कम चलाए…. उसने अपने मंगेतर को ये सुझाव सुनाया….वो फॉर्चुनेट्ली राज़ी हो गया … और उसने ही खुद शुरुआत की….जिस दिन पहला खत आया वो खुश हो गयी….लेकर मेरे पास आई…और मुझसे पढ़वाया.. फिर कहा अब इसका जवाब दो… मैं हेरान हो गई….मैने कहा मैं कैसे लिखू? काफ़ी अनबन के बाद हम दोनो ने मिलके उस खत का जवाब दिया…..फिर उन दोनो का खतो का सिलसिला शुरू हुआ…वो खुश थी….जब भी खत आता वो मेरे पास आती और हम मिलके उस खत का जवाब लिखते…. फिर एक बार उसने मेरे बारे में अपने मंगेतर को बताया…की मैने ये सुझाव दिया और अब भी वो मुझसे खत लिखने में हेल्प लेती है…उसके मंगेतर ने दूसरे खत के साथ एक खत मेरे नाम का भेजा … अलग से …. उसके बाद कई बार ऐसा हुआ ... उसे समझाने की कई बाते मुझे लिखता और मैं उसे समझा देती... हम सब एक दूसरे के बारे में अच्छे से जान ने लगे थे….और वो अब फोन पर भी आराम से बात कर पाती थी….सगाई को करीब 4-5 महीने हो गये थे…और मेरी सहेली खुश थी अब…. फिर एक दिन उसके मंगेतर ने मिलने के बारे में कहा…वो भी घरवालो से छुपकर…क्यूकी उनके यहा शादी से पहले मिलना जायज़ नही माना जाता था…. मिलने की बात पर मेरी सहेली परेशान हो गई…उसने कहा की वो तो नही मिलेगी…..उसके बाद डाइरेक्ट लेटर मुझ पर आया उसे समझने को….. मैने थोड़ा भाव खाया और मेरी सहेली को मना लिया….वो डर रही थी की किसी दिन उसके घर वालो को पता चल गया तो प्राब्लम हो जाएगी…मैने कहा हम सब तुम्हारी दोस्त है …हम सब के साथ ही तुम उसे मिलोगी …..फिर क्या प्राब्लम है….और जाके कौन कहने वाला है तुम्हारे घर पर ?……कॉलेज के गार्डेन में ही एक दिन मिलने का प्लान बनाया….उसके मंगेतर ने कहा था की उसे अकेले नही मिलना….अगर हम सब भी साथ हो तो उसे कोई प्राब्लम नही था….तो पूरा ग्रूप इस थ्रिलिंग टाइम को एंजाय करने का सोच रहा था….
उस वक्त तक उस लड़के ने हम पर एक अच्छी इंप्रेशन बना ली थी….बातो से वो मेच्योर लग रहा था….और काफ़ी फॉर्वर्ड भी … उसके कुछ दोस्त के साथ वो मेरी फ़्रेंड से मिलने आया .. सब साथ में मिले….देखने में ठीकठाक था….पर मेरी सहेली के लिए ठीक था….उससे मिलके मुझे लगा की उसकी शादी में कोई प्राब्लम नही होगी….शादी के बाद वो खुश रखेगा उसे……तो हम सब खुश थे…फिर धीरे धीरे खत कम होते गये और उसके बाद वो लोग फोन पर आरामसे बाते करने लगे……
साल ख़तम होने पर था….दिसम्बर या जन्वरी में उसकी शादी पक्की हुई…..तारीख आ गई…..उसने हम फ्रेंड्स को बोल दिया था की 2 दिन हमे उसके घर पर ही रुकना है….उसका घर मेरे घर से काफ़ी दूर था…और आने जाने में काफ़ी वक्त चला जाए ऐसा था … तो हम ने भी वही ठीक समझा….
उस वक्त तक उस लड़के ने हम पर एक अच्छी इंप्रेशन बना ली थी….बातो से वो मेच्योर लग रहा था….और काफ़ी फॉर्वर्ड भी … उसके कुछ दोस्त के साथ वो मेरी फ़्रेंड से मिलने आया .. सब साथ में मिले….देखने में ठीकठाक था….पर मेरी सहेली के लिए ठीक था….उससे मिलके मुझे लगा की उसकी शादी में कोई प्राब्लम नही होगी….शादी के बाद वो खुश रखेगा उसे……तो हम सब खुश थे…फिर धीरे धीरे खत कम होते गये और उसके बाद वो लोग फोन पर आरामसे बाते करने लगे……
साल ख़तम होने पर था….दिसम्बर या जन्वरी में उसकी शादी पक्की हुई…..तारीख आ गई…..उसने हम फ्रेंड्स को बोल दिया था की 2 दिन हमे उसके घर पर ही रुकना है….उसका घर मेरे घर से काफ़ी दूर था…और आने जाने में काफ़ी वक्त चला जाए ऐसा था … तो हम ने भी वही ठीक समझा….
शादी के अगले दिन हम उसके घर पर शिफ्ट हो गये …. सारी सहेलिया….पहली शादी थी तो सब मस्ती के मूड में थे… उसके पापा ने हमे हमारे जीजाजी को संभलने की सूचना दे दी थी….घर पर उसने हमें उसे दी जाने वाली हर एक चीज़ दिखाई…कपड़े – गहने तक तो बात ठीक थी….मुझे आश्चर्य हुआ जब मैने पीतल के बर्तनो से भरा पूरा कपबोर्ड देखा…जो हम कभी इस्तेमाल भी नही करते थे….मैने मेरी सहेली से पूछा….ये क्यू? उसने कहा ..बस…देना पड़ता है…रिवाज है…..जो बर्तन तो वो कभी इस्तेमाल करने वाले भी नही थे…..फिर भी… फिर उसने बताया की अभी टीवी, फ्रीज़, कपबोर्ड और फर्निचर भी आएगा और सजाया जाएगा…..मैने कहा क्यू? …उसने कहा दहेज में… मैने कहा की तुम्हारे पापा अपनी मर्ज़ी से दे रहे है या उन्होने माँगा है….उसकी मम्मी वही पर थी…..वो मेरे सामने देखने लगी… मेरी सहेली ने कोई जवाब नही दिया…..पर मुझे बहुत बुरा लगा… उसकी मम्मी के जाते ही मेरी सहेली ने कहा मीता…प्लीज़ …. ये शादी होने देना….तुम कुछ मत करना.. हम सब सहेलिया एकदम चुप हो गई…मैने उसे कहा … की तुमने अपने मंगेतर से कोई बात नही की…..या उसने कोई विरोध नही किया? ….. वो चुप हो गई…..
सारी सहेलियो ने अब मुझसे कहा….मीता …उनके रिवाजो से इतने से काम हो रहा है तो होने दो…अगर वो खुद ही कुछ नही बोल रही तो……मैं अपनी सहेली को जानती थी….बडौदा मैं पली बड़ी होने के कारण उसे खुद की इस रिवाज से परहेज था….वो खुद भी चाहती थी की ऐसा कुछ ना हो…मुझे आश्चर्य हुआ की क्या उसने अपने इस विचार के बारे में लड़के से कोई बात नही की?
शायद की होगी ..क्या पता… शादी का समय रात का था….फेरो का समय था 12 बजे के बाद का… मुझे रात को जागने की कभी आदत नही थी….पर फिर भी जाग रहे थे… शादी शुरू हुई….. शुरू होते ही हमने लास्ट टाइम सबको चाय कॉफी पिलाई …और आराम से बैठे…..शादी मेरी सहेली के घर की छत पर ही थी…..उसका कमरा बीचवाले फ्लोर पर था…..सारे मेहमान चले गये थे…बस घर के कुछ लोग..हम लड़किया और बाराती जाग रहे थे….. पंडित मंत्र बोल रहा था और नींद के कारण मुझे कुछ सुनाई नही दे रहा था….उसकी मम्मी ने आकर हमसे कहा की अगर हम सोना चाहे तो हमारी सहेली के कमरे में जाके सो सकते है….हम लोग थक भी गये थे तो सब नीचे आए….फेरे शुरू होने में थोड़ी देर थी….नीचे उसके कमरे में हम लड़कियो ने थोड़ी देर तो बाते की…फिर एक के बाद एक सोने लगी…..
इतने में अचानक उपर से ज़ोर से आवाज़ आई …..किसी के रोने की…..हम एकदम से सब जाग गये…. मैं सो रही थी तो फाटक से खड़ी हो गई…..मेरी सहेली की मॅमी के रोने की आवाज़ थी … हम सब उपर भागे.... जो देखा वहा वो उससे पहले सिर्फ़ हिन्दी मूवीस में देखा था…मेरी सहेली का दूल्हा तमाशा देख रहा था….और सहेली सहम के खड़ी थि..उसकी मॅमी रो रही थी… कुछ लोग उन्हे संभालनेकी कोशिश कर रहे थे…और उसके पापा हाथ में पगड़ी लिए गिड़गिडा रहे थे….3 फेरे हो चुके थे…और चौथे फेरे को पूरा करने से पहले लड़के के बाप ने 2 लाख कैश माँगा था….कह रहा था की अभी दो तो फेरे होंगे वरना नही होंगे….मेरी सहेली के पापा के पास उस वक्त कुछ नही था…उसने और सब लोगो ने मिलके समझाया…..मुझे जैसे ही ये पता चला की वहा दहेज माँगा जा रहा है…. बहुत गुस्सा आया…. सब लड़किया ….बिल्कुल सुन्न होके खड़ी थी…..मैने मेरी सहेली की और देखा….और सीधे नीचे की और चलने लगी….नीचे जाके मैने सबसे पहले जो लोग नीचे सो रहे थे उनको फोन के बारे में पूछा….किसी को पता चला की मैं फोन ढूँढ रही हू …तो मेरी सहेली के किसी रिश्तेदार ने जाके उपर उसकी मॅमी को बताया….दो दिन से उसी घर में रहने के कारण … उसके करीबी रिश्तेदार जान गये थे ..की हम उसकी सहेलिया है….तो उसकी चाची नीचे आई…..हम सब लड़कियो को एक कमरे में इक्कठा किया और बाहर से दरवाजा बंद कर दिया……बाकी सब लड़कियो को हिदायत देके गई की मीता को बाहर मत आने देना……
आंटी अभी भी रो रही थी.. और मुझसे बर्दाश्त नही हो रहा था…. पूरी रात कुछ नही कर सकी मैं….उस दिन अपने आपको पहली बार इतना लाचार पाया….काश उस रात मेरे पास मोबाइल होता….सब लड़किया सिसक रही थी….गुस्से के कारण मेरे मुँह से शब्द भी नही निकल रहे थे
उपर सुबह पैसे देने का वादा करके फेरे ख़तम हुए….सुबह हमे कमरे से निकाला गया…बिदाई से पहले मेरी सहेली दुल्हन बन के बैठी थी…. सब मिली….मैं उसके सामने गई..उसे देखा….वो नज़रे नही मिला पाई….मुझे गुस्सा आया….उसका दूल्हा कही और बैठा था…….. बाराती वापस जा रहे थे….जाते जाते उसका दूल्हा मुझसे मिलने आया…. मैने उससे कहा की आपसे ऐसी उम्मीद नही थी…..वो कुछ नही बोला…ऐसा लगा की कोई अजनबी खड़ा था वहा….
मैने सोचा था….कॉलेज में लेक्चरर था तो कम से कम वो ये नही होने देगा ….. इतना समझदार तो होगा….की कोई कूरीवाज को हटाने के लिए सबसे पहले हम नौजवानो को ही पहल करनी पड़ेगी…. अगर लड़की के मा बाप अपनी बेटी को कुछ दे सकते है और देना चाहते है तब तक बात ठीक है…. पर ये कैसा रिवाज है की फेरो के वक्त पर किसी की इज़्ज़त ऐसे उछाली जाए….
आप में से कई सारे लोगो ने तो ये हर साल देखा होगा…..आज भी सुना है कई जगहो पर ये दोहराया जाता है…. मुझे आज तक समझ में नही आया…की ये कौनसी प्रथा है जहा पर इंसान को बिकने के लिए कोई शर्म नही होती….उपर से वो सर उठाके कहता है की दहेज में इतने माँगे…..आज जितना लड़के पढ़ते है उतना ही लड़किया पढ़ती है….दहेज लड़की के घर वाले देते है तो फिर क्यू लड़के शादी के बाद लड़की के घरवालो को इतना नही संभालते जितना लड़की अपने ससुराल वालो को संभालती है…. अफ़सोस है …गुस्सा है….और नफ़रत भी…..अपने दोस्तो से उम्मीद रखती हू ….की कम से कम वो लोग अपनी शादी में ऐसी कोई हरकत होने से बचाए….
सारी सहेलियो ने अब मुझसे कहा….मीता …उनके रिवाजो से इतने से काम हो रहा है तो होने दो…अगर वो खुद ही कुछ नही बोल रही तो……मैं अपनी सहेली को जानती थी….बडौदा मैं पली बड़ी होने के कारण उसे खुद की इस रिवाज से परहेज था….वो खुद भी चाहती थी की ऐसा कुछ ना हो…मुझे आश्चर्य हुआ की क्या उसने अपने इस विचार के बारे में लड़के से कोई बात नही की?
शायद की होगी ..क्या पता… शादी का समय रात का था….फेरो का समय था 12 बजे के बाद का… मुझे रात को जागने की कभी आदत नही थी….पर फिर भी जाग रहे थे… शादी शुरू हुई….. शुरू होते ही हमने लास्ट टाइम सबको चाय कॉफी पिलाई …और आराम से बैठे…..शादी मेरी सहेली के घर की छत पर ही थी…..उसका कमरा बीचवाले फ्लोर पर था…..सारे मेहमान चले गये थे…बस घर के कुछ लोग..हम लड़किया और बाराती जाग रहे थे….. पंडित मंत्र बोल रहा था और नींद के कारण मुझे कुछ सुनाई नही दे रहा था….उसकी मम्मी ने आकर हमसे कहा की अगर हम सोना चाहे तो हमारी सहेली के कमरे में जाके सो सकते है….हम लोग थक भी गये थे तो सब नीचे आए….फेरे शुरू होने में थोड़ी देर थी….नीचे उसके कमरे में हम लड़कियो ने थोड़ी देर तो बाते की…फिर एक के बाद एक सोने लगी…..
इतने में अचानक उपर से ज़ोर से आवाज़ आई …..किसी के रोने की…..हम एकदम से सब जाग गये…. मैं सो रही थी तो फाटक से खड़ी हो गई…..मेरी सहेली की मॅमी के रोने की आवाज़ थी … हम सब उपर भागे.... जो देखा वहा वो उससे पहले सिर्फ़ हिन्दी मूवीस में देखा था…मेरी सहेली का दूल्हा तमाशा देख रहा था….और सहेली सहम के खड़ी थि..उसकी मॅमी रो रही थी… कुछ लोग उन्हे संभालनेकी कोशिश कर रहे थे…और उसके पापा हाथ में पगड़ी लिए गिड़गिडा रहे थे….3 फेरे हो चुके थे…और चौथे फेरे को पूरा करने से पहले लड़के के बाप ने 2 लाख कैश माँगा था….कह रहा था की अभी दो तो फेरे होंगे वरना नही होंगे….मेरी सहेली के पापा के पास उस वक्त कुछ नही था…उसने और सब लोगो ने मिलके समझाया…..मुझे जैसे ही ये पता चला की वहा दहेज माँगा जा रहा है…. बहुत गुस्सा आया…. सब लड़किया ….बिल्कुल सुन्न होके खड़ी थी…..मैने मेरी सहेली की और देखा….और सीधे नीचे की और चलने लगी….नीचे जाके मैने सबसे पहले जो लोग नीचे सो रहे थे उनको फोन के बारे में पूछा….किसी को पता चला की मैं फोन ढूँढ रही हू …तो मेरी सहेली के किसी रिश्तेदार ने जाके उपर उसकी मॅमी को बताया….दो दिन से उसी घर में रहने के कारण … उसके करीबी रिश्तेदार जान गये थे ..की हम उसकी सहेलिया है….तो उसकी चाची नीचे आई…..हम सब लड़कियो को एक कमरे में इक्कठा किया और बाहर से दरवाजा बंद कर दिया……बाकी सब लड़कियो को हिदायत देके गई की मीता को बाहर मत आने देना……
आंटी अभी भी रो रही थी.. और मुझसे बर्दाश्त नही हो रहा था…. पूरी रात कुछ नही कर सकी मैं….उस दिन अपने आपको पहली बार इतना लाचार पाया….काश उस रात मेरे पास मोबाइल होता….सब लड़किया सिसक रही थी….गुस्से के कारण मेरे मुँह से शब्द भी नही निकल रहे थे
उपर सुबह पैसे देने का वादा करके फेरे ख़तम हुए….सुबह हमे कमरे से निकाला गया…बिदाई से पहले मेरी सहेली दुल्हन बन के बैठी थी…. सब मिली….मैं उसके सामने गई..उसे देखा….वो नज़रे नही मिला पाई….मुझे गुस्सा आया….उसका दूल्हा कही और बैठा था…….. बाराती वापस जा रहे थे….जाते जाते उसका दूल्हा मुझसे मिलने आया…. मैने उससे कहा की आपसे ऐसी उम्मीद नही थी…..वो कुछ नही बोला…ऐसा लगा की कोई अजनबी खड़ा था वहा….
मैने सोचा था….कॉलेज में लेक्चरर था तो कम से कम वो ये नही होने देगा ….. इतना समझदार तो होगा….की कोई कूरीवाज को हटाने के लिए सबसे पहले हम नौजवानो को ही पहल करनी पड़ेगी…. अगर लड़की के मा बाप अपनी बेटी को कुछ दे सकते है और देना चाहते है तब तक बात ठीक है…. पर ये कैसा रिवाज है की फेरो के वक्त पर किसी की इज़्ज़त ऐसे उछाली जाए….
आप में से कई सारे लोगो ने तो ये हर साल देखा होगा…..आज भी सुना है कई जगहो पर ये दोहराया जाता है…. मुझे आज तक समझ में नही आया…की ये कौनसी प्रथा है जहा पर इंसान को बिकने के लिए कोई शर्म नही होती….उपर से वो सर उठाके कहता है की दहेज में इतने माँगे…..आज जितना लड़के पढ़ते है उतना ही लड़किया पढ़ती है….दहेज लड़की के घर वाले देते है तो फिर क्यू लड़के शादी के बाद लड़की के घरवालो को इतना नही संभालते जितना लड़की अपने ससुराल वालो को संभालती है…. अफ़सोस है …गुस्सा है….और नफ़रत भी…..अपने दोस्तो से उम्मीद रखती हू ….की कम से कम वो लोग अपनी शादी में ऐसी कोई हरकत होने से बचाए….
गुरुवार, 13 नवंबर 2008
स्त्रियोचित???
उन्नति शर्मा,
इंदौर, म. प्र.
उन्नति जी इंदौर में फ्रॅंकफिन इन्स्टिट्यूट में पर्सनेलिटी डेवेलपमेंट की ट्रेनर है, साथ ही इंदौर थियेटर से भी जुड़ी है, हाल ही में उनके दो नाटको का मंचन हुआ है, दोनों ही नाटकों मे तलाक़शुदा स्त्रियों के मनोवैज्ञानिक उतार चढ़ाव को दर्शाया गया है.
जहाँ नाटक 'धूप का एक टुकड़ा' में एक तलाक़शुदा महिला अतीत के सुखमय क्षणों के सहारे अपना वर्तमान जीवन जी रही है, वही नाटक 'नींद क्यों रात भर नही आती' में एक तलाक़शुदा महिला, जीवन के कड़ुवे यथार्थ से क्षुब्ध हो आत्महत्या कर गुज़रती है..
नेस्बी के लिए उन्नति जी की ये पहली पोस्ट है.. उनके नियमित लेखन के लिए हमारी और से शुभकामनाए
इंदौर, म. प्र.
उन्नति जी इंदौर में फ्रॅंकफिन इन्स्टिट्यूट में पर्सनेलिटी डेवेलपमेंट की ट्रेनर है, साथ ही इंदौर थियेटर से भी जुड़ी है, हाल ही में उनके दो नाटको का मंचन हुआ है, दोनों ही नाटकों मे तलाक़शुदा स्त्रियों के मनोवैज्ञानिक उतार चढ़ाव को दर्शाया गया है.
जहाँ नाटक 'धूप का एक टुकड़ा' में एक तलाक़शुदा महिला अतीत के सुखमय क्षणों के सहारे अपना वर्तमान जीवन जी रही है, वही नाटक 'नींद क्यों रात भर नही आती' में एक तलाक़शुदा महिला, जीवन के कड़ुवे यथार्थ से क्षुब्ध हो आत्महत्या कर गुज़रती है..
नेस्बी के लिए उन्नति जी की ये पहली पोस्ट है.. उनके नियमित लेखन के लिए हमारी और से शुभकामनाए
स्त्रियोचित???
स्त्रियोचित???
मैं आज कुछ सोच रही थी...
क्या????
वही घिसा पिटा स्त्रियोचित ठहराव ...
वही रिश्तों का चक्रवियुह...
वही प्रेम की पहेली...
वही सपनो का मंच...
खैर... बताती हू...
क्या ऐसा नही लगता की...
अविश्वास के अंधकार
मेँ और असंतोष के बीहड़ मे सारे रिश्ते ही गुम है... आजकल???
और रिश्ते गुम भी हो सकते है,जो वासना के धरातल पर बने हो...
क्यों.. है ना?
नही ये ज़रूरी नही...
मुझे ऐसा लगता है...प्रेम??? प्रेम मात्रा एक कल्पना है..
जो मैने संजोई थी...जैसे सब संजोते है अल्हड़पन में...
वैचारिक अपरिपक्वता में...
जो अक्सर ही मुझे ठेंगा दिखाते हुए...
आज तक मेरा उपहास उड़ा रही है...
और कई लोग है आज भी...
जो अपने सपनो की...मृत्यु शैय्या पर...
अपने जीवन की...सुहाग रात मना रहे है...
आज...नया युग...भावनाओ के उपर...
गणक... संगणक... का युग...प्रतियोगिता करता ...
आगे बढ़ता युग तभी आज भी...
वासना का सैलाब भरा हुआ है...
असंतोष का 'अन्नुअल पॅकेज'
अविश्वास के 'पर्क्स' से सज़ा है...
जिस से मिलता है अस्थिरता का 'प्रमोशन'...
और मैं ??? प्रतियोगिता से बाहर...दौड़ रही हू...
पीछे ...बचपन को ढूंढते...
वही पर हू अभी भी जहाँ सारी गणना...
उंगलियों पर हो जाती थी...सपनो मे आखें लग जाती थी...
माँ के आचल मे जीवन सिमट जाता था...
'डियो' के साथ हींग और धनिए से महक जाता था... .......
और तुम कहते हो 'वरी' करने की कोई बात नही...
मैं अभी भी पुरानी हूँ
रिश्तो को समाज के लिए निभाती ..हूँ
प्यार करती हू अपने प्यार से ...
पर उसे समझ नही पाती हूँ
आक्षेपों को सह कर बच्चो का बचपन बचाती हूँ
सब रिश्तों से नफ़रत कर के भी
प्यार जताती हूँ
और तुम पूछते हो अपने लिए
लिए अच्छा वक़्त गुज़ारती हो...तो क्या बुरा करती हो?
तुम कौन हो?
क्यू मुझे अच्छे वक़्त की गंदी आदत डाल रहे हो?
तुम कौन हो?
कब तक हो?
....उत्तर दो...
सिर्फ़ शब्दो का जाल नही..
सोमवार, 15 सितंबर 2008
हाँ मैं पास हो गयी हूँ (lekh likhne ki Meri pahli koshish)
दोपहर के दो बज रहे थे कि अचानक ही टेलिफोन की घंटी बजी
क्या मैं श्रीमती जैन से बात कर सकती हूँ – एक मधुर सी आवाज़ ने पूछा
जी बोल रही हूँ – मैने जवाब दिया
आप कितनी देर में स्कूल पहुँच सकती है .- वहाँ से सीधे सवाल पूछा गया
2 बजे डेमो क्लास का टाइम देकर उसने फोन रख दिया और मैं खुशी और घबराहट के साथ तैयार होने लगी.
2 बजे प्रिन्सिपल से मिलने के बाद मुझे कक्षा पाँच में जाकर एक लेसन पढ़ाने के लिए कहा गया . और मेरा पढ़ाने के ढंग देखकर मुझे दूसरे ही दिन से आने के लिए कहा.
कक्षा पाँच में 30 -35 बच्चे थे और सभी के चेहरे पर अपनी पुरानी अध्यापिका के जाने का दर्द दिख रहा था . मुझे लगा जैसे इनके मन में अपनी जगह बनाना मुश्किल होगा .
बच्चे जो मन के बहुत भोले होते हैं अब तक यही लगता था कि उन्हें बहलना बहुत आसान है परन्तु ये काम सबसे कठिन साबित हुआ
उन्होनें साफ शब्दों में अपनी पुरानी अध्यापिका को अच्छा बताया और उनकी तारीफ में बहुत सी बातें बताई
तब पहली बार मुझे उलझन हुई और शायद पहली बार जलन भी हुई
उन्हें डांटना इस वक़्त जैसे पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा . परंतु डांट बिना तो अध्यापिका पढ़ा ही नहीं पाएगी
मैने हिम्मत करके सभी छात्रों से कहा कि मुझे एक मौका अवशय दे और उन्हें पढ़ाना शुरू किया , धीरे धीरे उनके साथ घुलने
मिलने की और अपनी एक जगह बनाने की कोशिश करती रही
समय समय पर मेरी तुलना दूसरी अध्यापिका से वो करते और मुझे बुरा लगता
ज़िद थी मैं बच्चों के मन में अपनी जगह बनाना चाहती थी
उनके हर सवालों के जवाब देते हुए मैं उनको पाठ समझाती. एक दिन बोर्ड पर जवाब लिखने के बाद जैसे ही मैं पलटी – एक बच्चे ने उठ कर कहा कि टीचर आपने वो शब्द ग़लत लिखा है दुबारा किताब में जाँचने के बाद में उस शब्द को ठीक किया और साथ ही छोटे से बच्चे से माफी माँगते हुए धन्यवाद भी किया.
कमज़ोर बच्चों के साथ अलग से बैठ कर उनकी सभी समस्या सुलझाई
और फिर परीक्षा के दिन, जैसे मेरा इम्तिहान हो. मैं हैरान सी दिन भर सब पर चिल्लाति, झुंझलाती उनको पढ़ाती
आख़िर परिणाम आए और मैं पास हो गयी थी
हाँ मैं पास हो गयी थी, तब पता चला जब
शिक्षक दिवस पर अचानक कक्षा पाँच के कुछ बच्चे मेरे पास आए
और मेरे हाथ में एक ग्रीटिंग कार्ड दिया
S - sweet but strict
H – Honest to say sorry & thank you
I – Intelligent and innocent
L – lovely and energetic
P – passionate about work
A- Appreciate every one to motivate
You are the best teacher.
मेरी आँखें भर आई मेरे लिए वो दिन बहुत बड़ा दिन था
बड़ी सी बड़ी सफलता भी इस एक छोटी सी बात के सामने फीकी पढ़ गयी थी
क्या मैं श्रीमती जैन से बात कर सकती हूँ – एक मधुर सी आवाज़ ने पूछा
जी बोल रही हूँ – मैने जवाब दिया
आप कितनी देर में स्कूल पहुँच सकती है .- वहाँ से सीधे सवाल पूछा गया
2 बजे डेमो क्लास का टाइम देकर उसने फोन रख दिया और मैं खुशी और घबराहट के साथ तैयार होने लगी.
2 बजे प्रिन्सिपल से मिलने के बाद मुझे कक्षा पाँच में जाकर एक लेसन पढ़ाने के लिए कहा गया . और मेरा पढ़ाने के ढंग देखकर मुझे दूसरे ही दिन से आने के लिए कहा.
कक्षा पाँच में 30 -35 बच्चे थे और सभी के चेहरे पर अपनी पुरानी अध्यापिका के जाने का दर्द दिख रहा था . मुझे लगा जैसे इनके मन में अपनी जगह बनाना मुश्किल होगा .
बच्चे जो मन के बहुत भोले होते हैं अब तक यही लगता था कि उन्हें बहलना बहुत आसान है परन्तु ये काम सबसे कठिन साबित हुआ
उन्होनें साफ शब्दों में अपनी पुरानी अध्यापिका को अच्छा बताया और उनकी तारीफ में बहुत सी बातें बताई
तब पहली बार मुझे उलझन हुई और शायद पहली बार जलन भी हुई
उन्हें डांटना इस वक़्त जैसे पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा . परंतु डांट बिना तो अध्यापिका पढ़ा ही नहीं पाएगी
मैने हिम्मत करके सभी छात्रों से कहा कि मुझे एक मौका अवशय दे और उन्हें पढ़ाना शुरू किया , धीरे धीरे उनके साथ घुलने
मिलने की और अपनी एक जगह बनाने की कोशिश करती रही
समय समय पर मेरी तुलना दूसरी अध्यापिका से वो करते और मुझे बुरा लगता
ज़िद थी मैं बच्चों के मन में अपनी जगह बनाना चाहती थी
उनके हर सवालों के जवाब देते हुए मैं उनको पाठ समझाती. एक दिन बोर्ड पर जवाब लिखने के बाद जैसे ही मैं पलटी – एक बच्चे ने उठ कर कहा कि टीचर आपने वो शब्द ग़लत लिखा है दुबारा किताब में जाँचने के बाद में उस शब्द को ठीक किया और साथ ही छोटे से बच्चे से माफी माँगते हुए धन्यवाद भी किया.
कमज़ोर बच्चों के साथ अलग से बैठ कर उनकी सभी समस्या सुलझाई
और फिर परीक्षा के दिन, जैसे मेरा इम्तिहान हो. मैं हैरान सी दिन भर सब पर चिल्लाति, झुंझलाती उनको पढ़ाती
आख़िर परिणाम आए और मैं पास हो गयी थी
हाँ मैं पास हो गयी थी, तब पता चला जब
शिक्षक दिवस पर अचानक कक्षा पाँच के कुछ बच्चे मेरे पास आए
और मेरे हाथ में एक ग्रीटिंग कार्ड दिया
S - sweet but strict
H – Honest to say sorry & thank you
I – Intelligent and innocent
L – lovely and energetic
P – passionate about work
A- Appreciate every one to motivate
You are the best teacher.
मेरी आँखें भर आई मेरे लिए वो दिन बहुत बड़ा दिन था
बड़ी सी बड़ी सफलता भी इस एक छोटी सी बात के सामने फीकी पढ़ गयी थी
लेबल:
shrddha jain
शनिवार, 30 अगस्त 2008
नेस्बी के लिए मेरा पहला लेख - पल्लवी त्रिवेदी
म प्र पुलिस विभाग में डी एस पी के पद पर कार्यरत हु.. कभी सोचा भी नही था की ज़िन्दगी कुछ यू करवट लेगी.. ज़िन्दगी के कुछ खट्टे मीठे अनुभव बाँट रही हु आपके साथ.. नेस्बी के लिए मेरा पहला लेख है.. कैसा लगा बताइयेगा ।
सब लोग मुझसे कहते हैं कि डी.एस.पी. बनना मेरी एक उपलब्धि है! लेकिन मेरा मानना है कि उससे भी बड़ी उपलब्धि है डी.एस. पी. बनने के बाद पूरे व्यक्तित्त्व में एक सकारात्मक परिवर्तन आना! इस पद पर आने के लिए सिर्फ पढाई की ज़रूरत थी और कुछ नहीं! लेकिन असली चैलेन्ज तो इसके बाद शुरू हुआ! आज मैं बताना चाहूंगी कि किस तरह आत्मविश्वास, मुसीबतों को सहजता से लेना, शारीरिक और मानसिक रूप से ताकतवर बनना और संवेदनशील बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई जो आज भी जारी है!
मुझे याद है वो पहला दिन अकादमी का ...जब पहली बार मैं अपना बैग लेकर अजनबियों के बीच ट्रेनिंग के लिए पहुंची थी! लड़कियों से तो पहले ही दिन दोस्ती हो गयी थी लेकिन लड़कों ने अपने व्यवहार से परोक्ष रूप से जताना शुरू कर दिया था कि बन तो गयी हो डी.एस.पी. लेकिन ट्रेनिंग करना इतना आसान नहीं है लड़कियों के लिए! सच कहूं तो शुरू में थोडा डर भी लगा कि कहीं सचमुच कठिन ट्रेनिंग कर भी पाउंगी या नहीं! पहले कभी स्पोर्ट्स भी ज्यादा नहीं रहा, न ही एन.सी.सी. किया था कभी! पहले दिन हम सभी ग्राउंड पर पहुंचे! उस्ताद ने ग्राउंड के पांच चक्कर लगाने को कहा...दौड़ने भागने की आदत ही नहीं थी! उसके बाद पी.टी. फिर ड्रिल अभ्यास...शाम को फिर परेड फिर स्पोर्ट्स! शाम होते होते हालत खराब हो चुकी थी! शरीर में दर्द के मारे बुरा हाल था! लेकिन सुकून की बात ये थी कि लड़कियों का ही नहीं लड़कों का भी यही हाल था! एक सप्ताह में ही शरीर को इन सब चीज़ों की आदत हो गयी! अब तक उस्ताद भी थोड़े नरम हो गए थे!सुबह जब सबसे पहले ग्राउंड के पांच चक्कर लगाने पड़ते तो बड़ा तकलीफ देह होता था! लेकिन इतनी छूट मिलने लगी थी कि यदि कोई थक गया है तो बीच में से बाहर निकल सकता था! सभी लडकियां २-३ राउंड के बाद निकल जातीं! कुछ लड़के भी निकल जाते!थक तो मैं भी बहुत जाती थी लेकिन मुझे लगता था कि मैं किसी लड़के को ये कहने का मौका नहीं दूंगी कि हम तुम लड़कियों से ज्यादा ताकतवर हैं!मैं बिना कुछ सोचे लगातार बस दौड़ती रहती! मुझे एक दिन बहुत ख़ुशी हुई जब कई महीनों के बाद एक लड़के ने मुझसे कहा कि उसे मुझसे प्रेरणा मिलती है! वह बीच में दौड़ना बंद करना चाहता है लेकिन मुझे देखकर उसे शक्ति मिलती है! उस दिन मुझे लगा कि मैं जो सन्देश देना चाहती थी वो सभी तक पहुँच गया है!
मुझे लगता है तन से ज्यादा मन की मजबूती ज़रूरी है! मैंने ठान लिया था कि मैं किसी भी एक्टिविटी से पीछे नहीं हटूंगी! इसलिए जो काम अन्य लडकियां नहीं कर पाती थीं जैसे रस्से पर चढ़ना, कंधे पर रायफल और वजनदार बैग लेकर मीलों पैदल चलना और रॉक क्लाइम्बिंग करना वगेरह मैं आसानी से कर लेती थी और मुझे आनंद भी बहुत आता था! एक बार हम सभी बालाघाट गए नक्सलाईट ट्रेनिंग के लियए! वहाँ तीन दिन की जंगल ट्रेनिंग भी थी! उसके लिए तीन दिन का सामान लेकर और वजनदार एस.एल.आर. रायफल लेकर पैदल ही चलना था! हमारे साथ जिला पुलिस से अधिकारी और जवान भी भेजे गए थे जो रास्ता बता रहे थे! जब किसी पहाड़ पर चढ़ना होता था तो अपने शरीर का वजन ही ज्यादा जान पड़ता था!ऊपर से रायफल और बैग का बोझ!हमारे कई साथी उस वक्त अपना सामान व रायफल साथ आये जवानों को सौंप देते थे और खाली हाथ चलते थे!थकती मैं भी थी मगर मन में ठान चुकी थी कि सारी ट्रेनिंग बिना किसी सहारे के करनी है! इसलिए हाँफते हुए भी मैं अपना सामान अपने साथ ही रखती थी! मेरी इस बात को सभी अधिकारियों ने हमेशा सराहा! एक बार एक साथी बैचमेट ने कहा भी कि " थक गयी हो तो मुझे देदो अपना सामान" मैंने उसे जवाब दिया " तुम थक जाओ तो तुम मुझे अपना सामान दे देना" ! मुझे बहुत ख़ुशी होती है जब आज जूनियर बैच के डी.एस.पी मुझसे आकर कहते हैं कि आज भी अकादमी में उस्ताद लड़कियों को मेरा उदाहरण देते हैं.....मेरे साथ मेरी बैचमेट थी भावना , वह भी बहुत मेहनती थी!उस साल पहली बार कोई लड़की डी.एस.पी. ट्रेनिंग में प्रथम आई! वो थी भावना! दुसरे नंबर पर मैं थी!इस बार लडकियां बाजी मार ले गयीं थीं!
इसके बाद शुरू हुआ यथार्थ से सामना....यानी फील्ड में आकर काम करना! मुझे याद है जब पहली बार मैंने एक डैड बॉडी देखी थी ...उस व्यक्ति की हत्या हुई थी!मर्चुरी में रखी हुई उस लाश को देखकर मुझे चक्कर आ गया था और मैं चुपचाप बाहर निकल आई थी! उसके बाद मन को मजबूत किया और हर जगह जहां कोई हत्या होती थी , मैं जाने लगी! और अब तो हर तरह कि लाश चाहे वह कितनी भी सडीगली क्यों न हो , देखना एक सामान्य बात हो गयी है! इस नौकरी ने आत्म विश्वास बहुत बढाया! कभी ऐसा लगा ही नहीं कि लड़का या लड़की में जरा सा भी भेद होता है!
एक और घटना मेरे दिमाग में आती है...ट्रेनिंग ख़त्म करने के बाद मेरी पहली पोस्टिंग ग्वालियर में हुई! उत्साह और जोश से मैं लबालब भरी हुई थी! पोस्टिंग के थोड़े ही दिन के भीतर मैं एक दिन थाने पर बैठी थी...तभी एक गाँव में एक गांजे का खेत होने की सूचना आई! मैं तत्काल थाना प्रभारी और ५-६ जवानों को लेकर वहाँ पहुँच गयी! वहाँ जाकर देखा तो गांजे का एक पूरा भरा हुआ खेत था...जिसमे एक झोंपडी बनी हुई थी! झोंपडी की जब तलाशी ली तो सूखे गांजे से भरा हुआ बोरा और कुछ अवैध हथियार मिले! मुलजिम भी हमारे हाथ में था और माल भी! हमारी रेड सफल हो गयी थी!ख़ुशी ख़ुशी हम अपना आगे का काम कर रहे थे...इतने में चारों और से गोलियों की आवाज़ आने लगी! दरअसल हमसे एक गलती हो गयी थी! उस झोंपडी में से एक औरत चुप चाप पीछे से निकल कर भाग गयी थी और पूरे गाँव को इकठ्ठा कर लायी! सभी गाँव वाले एकजुट होकर आये और सीधे फायरिंग शुरू कर दी! हल्का हल्का अँधेरा होना शुरू हो गया था! एकाएक चारों तरफ से गोलियों की बौछार होते देख एक पल को मैं बुरी तरह घबरा गयी! लगा की बस आज मौत आने ही वाली है!उस वक्त एक विचार ये भी आया दिमाग में की भाड़ में गया गांजा...यहाँ से जान बचाकर भागा जाये!तभी जैसे अन्दर से किसी ने धिक्कारा मुझे कि क्या इसी बल बूते पर पुलिस में नौकरी करने आई हो!मेरे मन में ख़याल आया कि मैं अगर भागी तो अपनी जान तो बचा लूंगी लेकिन अगले दिन के पेपर मेरी कायरता से रंगे होंगे! और दूसरी बात ..अगर एक बार गाँव के लोग पुलिस पर हावी हो गए तो हमेशा पुलिस पर हमला करेंगे!मैंने निश्चय किया कि मैं वहीं रहूंगी! मैंने थाना प्रभारी से कहा कि अपन भी जवाबी फायरिंग करते हैं!उसने तत्काल मुझे रोका! बोला...अगर इस अँधेरे में किसी को गोली लग गयी तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी! मैं नयी थी और वह दस साल का अनुभवी! मैंने उसकी बात मान ली!बाद में महसूस हुआ कि उसकी बात मानकर मैंने अकलमंदी की थी! बाद में मुझे लगा कि उस पल चारों और से बरसती गोलियों का मुकाबला करना मेरे अंदरूनी साहस को बढाने वाला सिद्ध हुआ! उसके बाद से अन्दर का भय मिट गया और आज बड़े से बड़े मॉब में मैं हाथ में लाठी और सर पर हेलमेट पहनकर घुस जाती हूँ!खतरा तो हर जगह है लेकिन अब सामना करने की हिम्मत आ गयी है!
ये तो हुई हिम्मत और आत्म विश्वास की बात...इसके बाद सबसे बड़ी चुनौती होती है! इस विभाग की बुराइयों से अपने आप को अछूता रखना! जिसमे प्रमुख हैं भ्रष्टाचार और जनता के प्रति असंवेदनशीलता! मैं नौकरी में आने के पहले हमेशा सोचती थी कि लोग कैसे रिश्वत देते और लेते होंगे? लोग कहा करते थे कि चाहो या न चाहो पुलिस में बिना पैसे लिए काम नहीं चलता! मुझे इन बातों पर हमेशा आश्चर्य होता था! जब पहली बार एस.डी.ओ.पी. के रूप में स्वतंत्र पोस्टिंग मिली तो कुछ ही दिनों बाद मेरे रीडर ने झिझकते हुए मुझसे पूछा कि दारू के ठेके वाले का क्या करना है? मुझे कुछ समझ नहीं आया! तब उसने खुलासा किया कि दस हज़ार वह हर महीने देता है! साथ ही हर थाने से कितना आता है , वह भी हिसाब उसने मुझे बताया! वह एक पल था जो किसी भी पुलिस वाले के बेईमान या ईमानदार होने का निर्धारण करता है! मुझे सोचने में एक पल भी नहीं लगा! मैंने कह दिया कि आज से एक पैसा भी कहीं से नहीं लिया जायेगा! रीडर को आश्चर्य हो रहा था...शायद उसकी नज़रों में ये बेवकूफी के आलावा कुछ नहीं था!बाद में मेरे दोस्तों ने मुझे इस बात के लिए मुझे पागल भी ठहराया! पर मुझे लगता है कि ईमानदारी अपने आप में एक बहुत बड़ी ताकत है! हमेशा से रिश्वत लेने को मैं इस रूप में देखती हूँ कि ये भीख लेने का ही दूसरा रूप है! जो अपना जीवन यापन करने में सक्षम नहीं है वही दूसरों के टुकडों पर पलता है!मुझे ख़ुशी है की मैंने ईमानदारी का रास्ता चुना!
दूसरी एक बात जो मुझे चकित करती है वो ये कि पुलिस से ये अपेक्षा क्यों की जाती है कि वह मार पीट करने वाला, गाली देने वाला और गुस्से वाला हो!मैं संवेदन शील तो पहले ही थी! लोग अक्सर कहते थे कि तुम जैसे लोगों के लिए ये डिपार्टमेंट नहीं है! अपनी संवेदनशीलता को थोडा कम करना होगा! लेकिन मैंने ठीक इसका उल्टा पाया! मुझे लगा , मुझे अपनी संवेदन शीलता बढाने की ज़रूरत है! इस विभाग के लोगों को तो अन्य लोगों की तुलना में ज्यादा संवेदनशील होना चाहिए! क्योकी जो व्यक्ति थाने तक आता है वह सचमुच पीड़ित होता है और न्याय के साथ अच्छे व्यवहार की भी उम्मीद रखता है! मैंने कई बार महसूस किया कि किसी व्यक्ति की पूरी बात तसल्ली से सुन लेने भर से ही वह काफी रिलीफ महसूस करने लगता है!मैंने हमेशा पीड़ित व्यक्ति को इस नजरिये से सुना कि अगर मैं उसके स्थान पर होती तो किस व्यवहार की उम्मीद रखती! इस नौकरी में आने के बाद मैं लोगों की तकलीफ को ज्यादा महसूस कर पाती हूँ!
कुल मिलाकर पुलिस वालों को चाहे दुनिया कितना भी कोसे लेकिन इस नौकरी ने मेरे व्यक्तित्व को एक नया आयाम दिया है!और मेरी अच्छाइयों में इजाफा ही किया है!और इस सभी बातों का पूरा श्रेय मेरे माता पिता को जाता है जिन्होंने बचपन से ही साहस और आत्मनिर्भरता का पाठ पढाया! वरना शायद मैं भी उन्ही पुलिसवालों में से एक होती जिनकी वजह से ये विभाग बदनाम है!
अब पीछे मूड कर देखती हू तो लगता है नेस्बी भी पुलिस बन सकती है.. और सच तब बहुत खुशी होती है...
मुझे याद है वो पहला दिन अकादमी का ...जब पहली बार मैं अपना बैग लेकर अजनबियों के बीच ट्रेनिंग के लिए पहुंची थी! लड़कियों से तो पहले ही दिन दोस्ती हो गयी थी लेकिन लड़कों ने अपने व्यवहार से परोक्ष रूप से जताना शुरू कर दिया था कि बन तो गयी हो डी.एस.पी. लेकिन ट्रेनिंग करना इतना आसान नहीं है लड़कियों के लिए! सच कहूं तो शुरू में थोडा डर भी लगा कि कहीं सचमुच कठिन ट्रेनिंग कर भी पाउंगी या नहीं! पहले कभी स्पोर्ट्स भी ज्यादा नहीं रहा, न ही एन.सी.सी. किया था कभी! पहले दिन हम सभी ग्राउंड पर पहुंचे! उस्ताद ने ग्राउंड के पांच चक्कर लगाने को कहा...दौड़ने भागने की आदत ही नहीं थी! उसके बाद पी.टी. फिर ड्रिल अभ्यास...शाम को फिर परेड फिर स्पोर्ट्स! शाम होते होते हालत खराब हो चुकी थी! शरीर में दर्द के मारे बुरा हाल था! लेकिन सुकून की बात ये थी कि लड़कियों का ही नहीं लड़कों का भी यही हाल था! एक सप्ताह में ही शरीर को इन सब चीज़ों की आदत हो गयी! अब तक उस्ताद भी थोड़े नरम हो गए थे!सुबह जब सबसे पहले ग्राउंड के पांच चक्कर लगाने पड़ते तो बड़ा तकलीफ देह होता था! लेकिन इतनी छूट मिलने लगी थी कि यदि कोई थक गया है तो बीच में से बाहर निकल सकता था! सभी लडकियां २-३ राउंड के बाद निकल जातीं! कुछ लड़के भी निकल जाते!थक तो मैं भी बहुत जाती थी लेकिन मुझे लगता था कि मैं किसी लड़के को ये कहने का मौका नहीं दूंगी कि हम तुम लड़कियों से ज्यादा ताकतवर हैं!मैं बिना कुछ सोचे लगातार बस दौड़ती रहती! मुझे एक दिन बहुत ख़ुशी हुई जब कई महीनों के बाद एक लड़के ने मुझसे कहा कि उसे मुझसे प्रेरणा मिलती है! वह बीच में दौड़ना बंद करना चाहता है लेकिन मुझे देखकर उसे शक्ति मिलती है! उस दिन मुझे लगा कि मैं जो सन्देश देना चाहती थी वो सभी तक पहुँच गया है!
मुझे लगता है तन से ज्यादा मन की मजबूती ज़रूरी है! मैंने ठान लिया था कि मैं किसी भी एक्टिविटी से पीछे नहीं हटूंगी! इसलिए जो काम अन्य लडकियां नहीं कर पाती थीं जैसे रस्से पर चढ़ना, कंधे पर रायफल और वजनदार बैग लेकर मीलों पैदल चलना और रॉक क्लाइम्बिंग करना वगेरह मैं आसानी से कर लेती थी और मुझे आनंद भी बहुत आता था! एक बार हम सभी बालाघाट गए नक्सलाईट ट्रेनिंग के लियए! वहाँ तीन दिन की जंगल ट्रेनिंग भी थी! उसके लिए तीन दिन का सामान लेकर और वजनदार एस.एल.आर. रायफल लेकर पैदल ही चलना था! हमारे साथ जिला पुलिस से अधिकारी और जवान भी भेजे गए थे जो रास्ता बता रहे थे! जब किसी पहाड़ पर चढ़ना होता था तो अपने शरीर का वजन ही ज्यादा जान पड़ता था!ऊपर से रायफल और बैग का बोझ!हमारे कई साथी उस वक्त अपना सामान व रायफल साथ आये जवानों को सौंप देते थे और खाली हाथ चलते थे!थकती मैं भी थी मगर मन में ठान चुकी थी कि सारी ट्रेनिंग बिना किसी सहारे के करनी है! इसलिए हाँफते हुए भी मैं अपना सामान अपने साथ ही रखती थी! मेरी इस बात को सभी अधिकारियों ने हमेशा सराहा! एक बार एक साथी बैचमेट ने कहा भी कि " थक गयी हो तो मुझे देदो अपना सामान" मैंने उसे जवाब दिया " तुम थक जाओ तो तुम मुझे अपना सामान दे देना" ! मुझे बहुत ख़ुशी होती है जब आज जूनियर बैच के डी.एस.पी मुझसे आकर कहते हैं कि आज भी अकादमी में उस्ताद लड़कियों को मेरा उदाहरण देते हैं.....मेरे साथ मेरी बैचमेट थी भावना , वह भी बहुत मेहनती थी!उस साल पहली बार कोई लड़की डी.एस.पी. ट्रेनिंग में प्रथम आई! वो थी भावना! दुसरे नंबर पर मैं थी!इस बार लडकियां बाजी मार ले गयीं थीं!
इसके बाद शुरू हुआ यथार्थ से सामना....यानी फील्ड में आकर काम करना! मुझे याद है जब पहली बार मैंने एक डैड बॉडी देखी थी ...उस व्यक्ति की हत्या हुई थी!मर्चुरी में रखी हुई उस लाश को देखकर मुझे चक्कर आ गया था और मैं चुपचाप बाहर निकल आई थी! उसके बाद मन को मजबूत किया और हर जगह जहां कोई हत्या होती थी , मैं जाने लगी! और अब तो हर तरह कि लाश चाहे वह कितनी भी सडीगली क्यों न हो , देखना एक सामान्य बात हो गयी है! इस नौकरी ने आत्म विश्वास बहुत बढाया! कभी ऐसा लगा ही नहीं कि लड़का या लड़की में जरा सा भी भेद होता है!
एक और घटना मेरे दिमाग में आती है...ट्रेनिंग ख़त्म करने के बाद मेरी पहली पोस्टिंग ग्वालियर में हुई! उत्साह और जोश से मैं लबालब भरी हुई थी! पोस्टिंग के थोड़े ही दिन के भीतर मैं एक दिन थाने पर बैठी थी...तभी एक गाँव में एक गांजे का खेत होने की सूचना आई! मैं तत्काल थाना प्रभारी और ५-६ जवानों को लेकर वहाँ पहुँच गयी! वहाँ जाकर देखा तो गांजे का एक पूरा भरा हुआ खेत था...जिसमे एक झोंपडी बनी हुई थी! झोंपडी की जब तलाशी ली तो सूखे गांजे से भरा हुआ बोरा और कुछ अवैध हथियार मिले! मुलजिम भी हमारे हाथ में था और माल भी! हमारी रेड सफल हो गयी थी!ख़ुशी ख़ुशी हम अपना आगे का काम कर रहे थे...इतने में चारों और से गोलियों की आवाज़ आने लगी! दरअसल हमसे एक गलती हो गयी थी! उस झोंपडी में से एक औरत चुप चाप पीछे से निकल कर भाग गयी थी और पूरे गाँव को इकठ्ठा कर लायी! सभी गाँव वाले एकजुट होकर आये और सीधे फायरिंग शुरू कर दी! हल्का हल्का अँधेरा होना शुरू हो गया था! एकाएक चारों तरफ से गोलियों की बौछार होते देख एक पल को मैं बुरी तरह घबरा गयी! लगा की बस आज मौत आने ही वाली है!उस वक्त एक विचार ये भी आया दिमाग में की भाड़ में गया गांजा...यहाँ से जान बचाकर भागा जाये!तभी जैसे अन्दर से किसी ने धिक्कारा मुझे कि क्या इसी बल बूते पर पुलिस में नौकरी करने आई हो!मेरे मन में ख़याल आया कि मैं अगर भागी तो अपनी जान तो बचा लूंगी लेकिन अगले दिन के पेपर मेरी कायरता से रंगे होंगे! और दूसरी बात ..अगर एक बार गाँव के लोग पुलिस पर हावी हो गए तो हमेशा पुलिस पर हमला करेंगे!मैंने निश्चय किया कि मैं वहीं रहूंगी! मैंने थाना प्रभारी से कहा कि अपन भी जवाबी फायरिंग करते हैं!उसने तत्काल मुझे रोका! बोला...अगर इस अँधेरे में किसी को गोली लग गयी तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी! मैं नयी थी और वह दस साल का अनुभवी! मैंने उसकी बात मान ली!बाद में महसूस हुआ कि उसकी बात मानकर मैंने अकलमंदी की थी! बाद में मुझे लगा कि उस पल चारों और से बरसती गोलियों का मुकाबला करना मेरे अंदरूनी साहस को बढाने वाला सिद्ध हुआ! उसके बाद से अन्दर का भय मिट गया और आज बड़े से बड़े मॉब में मैं हाथ में लाठी और सर पर हेलमेट पहनकर घुस जाती हूँ!खतरा तो हर जगह है लेकिन अब सामना करने की हिम्मत आ गयी है!
ये तो हुई हिम्मत और आत्म विश्वास की बात...इसके बाद सबसे बड़ी चुनौती होती है! इस विभाग की बुराइयों से अपने आप को अछूता रखना! जिसमे प्रमुख हैं भ्रष्टाचार और जनता के प्रति असंवेदनशीलता! मैं नौकरी में आने के पहले हमेशा सोचती थी कि लोग कैसे रिश्वत देते और लेते होंगे? लोग कहा करते थे कि चाहो या न चाहो पुलिस में बिना पैसे लिए काम नहीं चलता! मुझे इन बातों पर हमेशा आश्चर्य होता था! जब पहली बार एस.डी.ओ.पी. के रूप में स्वतंत्र पोस्टिंग मिली तो कुछ ही दिनों बाद मेरे रीडर ने झिझकते हुए मुझसे पूछा कि दारू के ठेके वाले का क्या करना है? मुझे कुछ समझ नहीं आया! तब उसने खुलासा किया कि दस हज़ार वह हर महीने देता है! साथ ही हर थाने से कितना आता है , वह भी हिसाब उसने मुझे बताया! वह एक पल था जो किसी भी पुलिस वाले के बेईमान या ईमानदार होने का निर्धारण करता है! मुझे सोचने में एक पल भी नहीं लगा! मैंने कह दिया कि आज से एक पैसा भी कहीं से नहीं लिया जायेगा! रीडर को आश्चर्य हो रहा था...शायद उसकी नज़रों में ये बेवकूफी के आलावा कुछ नहीं था!बाद में मेरे दोस्तों ने मुझे इस बात के लिए मुझे पागल भी ठहराया! पर मुझे लगता है कि ईमानदारी अपने आप में एक बहुत बड़ी ताकत है! हमेशा से रिश्वत लेने को मैं इस रूप में देखती हूँ कि ये भीख लेने का ही दूसरा रूप है! जो अपना जीवन यापन करने में सक्षम नहीं है वही दूसरों के टुकडों पर पलता है!मुझे ख़ुशी है की मैंने ईमानदारी का रास्ता चुना!
दूसरी एक बात जो मुझे चकित करती है वो ये कि पुलिस से ये अपेक्षा क्यों की जाती है कि वह मार पीट करने वाला, गाली देने वाला और गुस्से वाला हो!मैं संवेदन शील तो पहले ही थी! लोग अक्सर कहते थे कि तुम जैसे लोगों के लिए ये डिपार्टमेंट नहीं है! अपनी संवेदनशीलता को थोडा कम करना होगा! लेकिन मैंने ठीक इसका उल्टा पाया! मुझे लगा , मुझे अपनी संवेदन शीलता बढाने की ज़रूरत है! इस विभाग के लोगों को तो अन्य लोगों की तुलना में ज्यादा संवेदनशील होना चाहिए! क्योकी जो व्यक्ति थाने तक आता है वह सचमुच पीड़ित होता है और न्याय के साथ अच्छे व्यवहार की भी उम्मीद रखता है! मैंने कई बार महसूस किया कि किसी व्यक्ति की पूरी बात तसल्ली से सुन लेने भर से ही वह काफी रिलीफ महसूस करने लगता है!मैंने हमेशा पीड़ित व्यक्ति को इस नजरिये से सुना कि अगर मैं उसके स्थान पर होती तो किस व्यवहार की उम्मीद रखती! इस नौकरी में आने के बाद मैं लोगों की तकलीफ को ज्यादा महसूस कर पाती हूँ!
कुल मिलाकर पुलिस वालों को चाहे दुनिया कितना भी कोसे लेकिन इस नौकरी ने मेरे व्यक्तित्व को एक नया आयाम दिया है!और मेरी अच्छाइयों में इजाफा ही किया है!और इस सभी बातों का पूरा श्रेय मेरे माता पिता को जाता है जिन्होंने बचपन से ही साहस और आत्मनिर्भरता का पाठ पढाया! वरना शायद मैं भी उन्ही पुलिसवालों में से एक होती जिनकी वजह से ये विभाग बदनाम है!
अब पीछे मूड कर देखती हू तो लगता है नेस्बी भी पुलिस बन सकती है.. और सच तब बहुत खुशी होती है...
गुरुवार, 21 अगस्त 2008
एक नेस्बी, अनजानी सी.. - नेस्बी के लिए मेरा पहला लेख
मैं एक मीडिया कंपनी में रिसर्च एग्ज़िक्युटिव के पद पर कार्यरत हू.. जिंदगी नित नये फ़लसफ़े सीखा जाती है.. ऐसे ही इक रोज़ एक फलसफा मिल गया.. सोचा आपके साथ बाँट लू.. नेस्बी के लिए ये मेरा पहला लेख है.. अच्छा लगा या बुरा बताएगा ज़रूर..
ह
मेरी बहन की एक सहेली है, उसके सबसे करीबी दोस्तों मे से एक..वो लड़की बहुत ही जिंदादिल, बातूनी, खुशमिजाज़ , सबको खुश रखे ऐसी है.. मुझे हमेशा से लगा की क्या बात है ऐसे भी लोग होते है जिन्हे कोई गम नही बस चिन्तामुक्त होकर जिए जा रहे है.. हमारी ज़्यादा मुलाक़ाते होती नही थी सो ज़्यादा जानती नही थी उसके बारे में.. तो एक ओपीनियन बना चुकी थी (वेरी जड्ज्मेंटल बाइ नेचर!) पर उस पल सारे ओपीनियन्स चकना चूर हो गये.. वो लड़की जो सबको खुशिया बाँट ती है, कॅन्सर से लड़ रही थी और उसे ना जीतने देने की कसम खा ली थी.. एक लड़की एक बड़े परिवार में जनम लेती है जहा बहुत सारे भाई बहनों में अपना अस्तित्व ढूँढने के लिए,माता पिता की आँखों का नूर बन ने के लिए उसे हमेशा कुछ अलग, कुछ हटके करना पड़ा..इसीलिए वो मेडिसिन में आई.. शायद डॉक्टर बनने पर उसे वो प्यार मिले जो वो चाहती है.. ऐसा नही की उसके घर वाले खराब थे.. बस जो प्यार उसके सीने में है सब के लिए, उसका फीडबॅक नही मिल पाया था वहा :-)
कॉलेज मे उसने दोस्त बनाए तो दुश्मन भी (पॅशनेट पीपल ऑल्वेज़ मेक एनिमीस एस वेल!) जिनको उनका प्यार मिला कभी भूल नही पाएँगे उसे और जिन्होने दुश्मनी निभाई कभी भूलना नही चाहेंगे उसे :-) जहा जाती वहा खुशी और अपनापन फैलाती फिर वो स्टेट ट्रांसपोर्ट की बस के पॅसेंजर्स या मेडिकल कॅंप मे मिले पेशेंट्स.. वो भी बहुत खुश थी की आख़िर उसे चाहिए था जैसा वैसा ही हो रहा था.
जैसे हम चाहते है गर वो हो रहा हो तो समझिए कुछ बुरा होने वाला है.. वैसा ही कुछ उसके साथ हुआ. थायराइड कॅन्सर डिटेक्ट हुआ.. बार बार ट्रीटमेंट के लिए टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल मुंबई के चक्कर लगने लगे..उतना काफ़ी नही था की डॉक्टर्स ने कहा थायराइड ग्लॅंड निकालना ही पड़ेगा वरना अच्छा ना होगा..वो भी कर लिया उसने..इन सब के बीच, कॉलेज अटेंड करना, हसी मज़ाक करना, एम्.बी.बी.एस. के एग्ज़ॅम्स देना और पास करना भी कर लेती थी..
जब ये सारी बाते पता चली मुझे, एक अजीब सी खुशी एक अजीब सी शर्म महसूस हुई.. खुशी इसलिए की वो लड़की अपना गम छुपाने के लिए हसती नही बलकि इसलिए क्यूं की उसे सच मे लगता है ज़िंदगी एक बार ही मिलती है उसे जितनी खुशी से जिया जाए वो और ज़्यादा खूबसूरत हो जाती है.. सेल्फ़ पिटी मे जीने के लिए अपने आप पर शर्म आई और सोचा की जब भगवान ने एक दूसरी ज़िंदगी दी है तो इसका कोई कारण होगा, शायद वो मुझे दुनिया को और खूबसूरत बनाने के लिए और प्यार बाटने के लिए कह रहा है.. तो बस हमने भी खुशिया बाँटने का कांट्रॅक्ट कर लिया है उपर वाले से और पूरी कोशिश करते है.. जब भी निराशा नज़र आती है.. उस लड़की को याद कर लेते है और फिर जीना शुरू कर देते है :-)शायद ऐसे ही लोगो को नेस्बी कहा जाता है..
कुछ दिन पहले मेरी बहन उस सहेली से बात कर रही थी, उसने कह दिया के तूने सई को इतना प्रभावित किया के वो तुझपर कुछ लिखना चाहती है.. वो बोली अरे क्या कहती हो मैने तो सई से ही प्रेरणा ली है! जब लोग अपने आस पास के लोगो से प्रेरणा लेने लगे..ज़िंदगी कितनी खूबसूरत हो जाती है ॥ है ना?
बुधवार, 13 अगस्त 2008
उसकी पायल...
बहोत रोई थी वो …. स्कूल से आते ही बस्ता फेंक के आज भी पापा के पास जाके पूछा…..”आ गई मेरी पायल ? “ और पापा ने कहा ‘ ना….. नही आई….’ आज शायद चौथा दिन था पूछने का ….पापा ने मेरे लिए पायल करवाई थी …. और उसके लिए नही …. नन्ही थी तो उन्हे लगा की खो देगी ….और उसका ये कहना था की मुझे तो चलने पर बस आवाज़ होनी चाहिए…..छन छन …. और वो भी जोरो से….. पूरी दुनिया को पता चले की मैं आ रही हू …. ऐसे ….मुझे बस पायल चाहिए….घूंघुरू वाली….. दीदी को दिलाई तो मुझे भी चाहिए…..वैसे मेरी पायल में मैने घुंघरू नही डलवाए थे…..बेचारी साइलेंट थी …..
पापा के मुँह से ना सुनते ही वो जोरो से रो पड़ी….रूम के बीचो बीच…स्कूल ड्रेस में…..पैर पटकती हुए….मैं घर पर ही थी…..उसे देख के हसी आ रही थी…. उसका चहेरा….लाल हो रहा था….और घुंघरू के बजाए उसके रोने की आवाज़ आ रही थी…ज़ोर ज़ोर से….. दुनिया को सच में पता चल रहा था…:) की वो आ गई है …।
कुछ साल बीत गये…उस दिन तो पापा ने उसे पुरानी गुड़िया के साथ उसका फोटो लेकर उसे म्ना लिया था….. और अब उसकी शादी होने वाली थी…. गहनो की बात हो रही थी….. उसके ससुराल से बड़े बड़े पायल आए थे…….और वो कहती थी….अब मैं नही पहेनूँगी…..अब उसे गुड़िया भी नही चाहिए थी…..एक जीते जागते अच्छे इंसान ने उसे पसंद कर लिया था……और अब वो खुद किसी की प्यारी सी गुड़िया जैसी थी….. घूंघुरू की छन छन के बजाए उसे मोबाइल में सेट उसकी रिंगर ID पसंद थी…॥
कैसे करवट लेती है जिंदगी …. उस दिन मैं उसकी नादानीयत पर हंस पड़ी थी ….आज उसको खुश देखके मुस्कुरा देती हू……
सदस्यता लें
संदेश (Atom)